सत्य की उपलब्धि के नाम पर
( a poem by ravi kumar, rawatbhata)
सत्य
कहते हैं ख़ुद को
स्वयं उद्घाटित नहीं करता
सत्य हमेशा
चुनौती पेश करता है
अपने को ख़ोज कर पा लेने की
और हमारी जिज्ञासा में अतृप्ति भर देता है
कहते हैं सत्य बहुत ही विरल है
उसे खोजना अपने आप में एक काम होता है
वह मथ ड़ालता है सारी बनी-बनाई परिपाटियों को
दरअसल
सत्य कभी एक साथ पूरा नहीं खुलता
वह उघड़ता है परत दर परत
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत
यह अलग बात है कि
हममें से अधिकतर पर
गुजरता है यह दुरूह और दुष्कर
उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर
हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त
यही बाकी बचता है
हमारे पास
सत्य की उपलब्धि के नाम पर
०००००
रवि कुमार
कहते हैं सत्य बहुत ही विरल है
उसे खोजना अपने आप में एक काम होता है
वह मथ ड़ालता है सारी बनी-बनाई परिपाटियों को
बहुत खूब विचारणीय प्रेरक कविता |
यह अलग बात है कि
हममें से अधिकतर पर
गुजरता है यह दुरूह और दुष्कर
उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर
और क्योकि यह मथ डालता है सारी बनी बनाई परिपाटियों को इसलिये भी हम शायद इसके करीब होते हुए भी आँखे मूँद लेते हैं.
कितने बौने हो जाते हैं हम या शायद खुद को बौना बना लेते हैं सच के सामने न पहचान पाने की हद तक
बहुत सुन्दर रचना
“हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त”
बढ़िया कविता. आभार.
कई दिनों से सोच रहा था आपसे कहूं कि एक बार mystilook थीम लगाकर देखें. आपके ब्लौग पर अच्छी लगेगी. नहीं जमने पर कैंसल भी कर सकते हैं.
बहुत गहरी बात..उम्दा रचना!
दरअसल
सत्य कभी एक साथ पूरा नहीं खुलता
वह उघड़ता है परत दर परत
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत
अति सुन्दर – सत्यम शिवम् सुन्दरम!
लम्बी यात्रा है – असतो मा सद्गमय…
हममें से अधिकतर पर
गुजरता है यह दुरूह और दुष्कर
उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर
हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त
यही बाकी बचता है
हमारे पास
सत्य की उपलब्धि के नाम पर
एक सुपूर्ण सत्य !!
आपका चिन्तन श्लाघ्य है।
चरैवेति चरैवेति।
आप ने पूरी शल्य क्रिया कर दी।
हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त
यही बाकी बचता है
हमारे पास
सत्य की उपलब्धि के नाम पर
माने ना माने …सत्य तो यही है
bahut khub
फिर से प्रशंसनीय रचना – बधाई
इस एक सच को हासिल करने के लिये ही तो उम्रभर मुसलसल जद्दोजेहद करनी होती है…उम्दा
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत……
बहुत सही….
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
.
.
.
“यह अलग बात है कि
हममें से अधिकतर पर
गुजरता है यह दुरूह और दुष्कर
उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर
हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त”
आपने सब खोल कर लिख दिया है…
कई बार तो मुझे आश्चर्य भी होता है कि स्वयं को सचेत, जागरूक और सत्यसाधक-गुणग्राही समझने वाले हम लोग ‘सत्य’ के साक्षात्कार से डरते-कतराते क्यों हैं… क्यों ऐसे मौकों पर हम में से अधिकतर बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां रूढ़ि, ‘परंपरा के सम्मान’ और कूपमण्डूकता की…
जवाब भी आपने दे ही दिया है…
अभिशप्त हैं हम लोग…भ्रमों की आराधना को अभिशप्त… 😦
सत्य सुंदर भी होता है औऱ शिवम् भी
अवश्य है दुष्कर
उस तक पहुँचने की यात्रा
कभी नहीं थकते सत्यान्वेषी
थकते हैं वे,
पाना चाहते हैं जो
सत्य का सुख
दुष्कर यात्रा के बिना
पर वे भी हैं जो
खोज लेते हैं सुख यात्रा में
और उन के लिए
दुष्कर नहीं रह जाती
यह यात्रा
वे दौड़ते हैं वैसे ही
जैसे दौड़ रही हों
तेज गाड़ियाँ राजमार्ग पर
वे ले चल पड़ते हैं
कारवाँ को मंजिल की तरफ
खुद पहुँचें, न पहुँचे
मंजिल तक
जहाँ पहुँच ही जाते हैं
कारवाँ
कभी न कभी
अद्भुत!!!!!!!!निशब्द हूँ….
सत्य का विश्लेषण जिस तरह से किया है वो काबिल-ए-तारीफ़ है………………बेहद खूबसूरत प्रस्तुति।
अद्भुत !!! डॉ अनुराग की तरह मैं भी निःशब्द हूँ …आप की ही कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर देती हूँ-
दरअसल
सत्य कभी एक साथ पूरा नहीं खुलता
वह उघड़ता है परत दर परत
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत
ATI SUNDAR EXPRESSION…..> भ्रमों की आराधना को अभिशप्त
भाई सत्य कुछ नहीं होता सत्य किसी आधार के सापेक्ष ही सत्य होता है, असत्य ओर सत्य अबूझ पहेली है , जैसे, क्योंकि जो मेरी नज़र में सत्य है हो सकता है वो परिवार कि नज़र में असत्य हो , ओर जो परिवार कि नज़र में सत्य है हो सकता है वो समाज कि नज़र में सत्य हो , या जो समाज कि नज़र में सत्य बात देश कि नज़र में सत्य नहीं हो |यों कह लीजिये कि सत्य ओर असत्य किसी ना किसी परिप्रेक्ष्य के आधार पर होता है तो है मित्र , सत्य ओर असत्य हम तय नहीं कर सकते वो तो उस समय के परिवेश के अनुसार होता
धृष्टता के लिए क्षमा |
पर सत्य कुछ नहीं है व्यक्ति ,समाज ओर देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व के द्वारा अपने हित के लिए बनाया गया एक मकड़जाल है |
भाई, आप वर्तमान की एक कड़वी सच्चाई से रूबरू करवा रहे हैं, जहां अपने-अपने अलग-अलग सापेक्ष हितों से जूझना ही जीवन का सच बना हुआ है…. जहां अपने हित ही सत्य के पर्याय का आभास देने लगते हैं….
लगता है मुझसे कोई चूक हुई….बंदा यहां कुछ और ही कहना चाह रहा था….
शायद यहां ऐसे सत्यों की बात करने की कोशिश की गई…जो किसी इस या उस के लिए बदल ना जाते हों…जो हमें इस दुनियां के बारे में…और बेहतर बनाते हों…
दूसरा पहलू सामने लाने के लिए…आपका धन्यवाद…
वाह….. अच्छी कविता….. साधुवाद….
BAHUT KHUB
SHANDAR RACHNA
BADHAI AAP KO IS KE LIE
SATYATA KI WASTUVIKTA KO SAMJHAYA AAP NE
दरअसल
सत्य कभी एक साथ पूरा नहीं खुलता
वह उघड़ता है परत दर परत
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत
सत्य का आंकलन .. सत्य ही किया है आपने …धीरे धीरे खुलने वाला सत्य भी तो कभी कभी सत्य नही रहता …
मैने भी अपने ब्लॉग पर झूठ या कहिए सत्य की एक रचना डाली है .. आपकी प्रतिक्रिया मिलेगी तो अच्छा लगेगा …
बहुत ही उच्च स्तर कि रचना!
आपकी इस खूबसूरत कविता मे कई सारे सत्य अलग अलग रंग मे खिल हैं ….बधाई ।
कमाल है …. क्या कहूं ?
[उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर]
बहुत अच्छे तरीके से सत्य का अंवेषण
बेहतर। प्रवीण जी ने कह दिया है और कविता तो टिप्पणी की जगह मैं फिर से नहीं लगाऊंगा। सुन्दर। सत्य का सत्य…दार्शनिक है जी आप…