मैं समन्दर के बिना कामिल नहीं
(a poem by ravi kumar, rawatbhata)
मेरी बुलन्दियों से हमेशा
मुख़ालिफ़त रही
और गहराइयों के प्रति
मक़नातीसी खिंचाव
इसी सबब मुझसे
इक समन्दर दरयाफ़्त हो गया
ज़मीं मुझे बुलन्दियों के सिम्त
सफर पर देखना चाहती थी
और समन्दर मुझे
अपने में उतर आने की
ख़ामोश दावत दे रहा था
हवासबाख़्ता मैं
समन्दर किनारे ठगा सा रह गया
बुलन्दियों को फतह करना
शायद मेरी दस्तयाबी रहे
पर गर्तों में शिरकत करना
मेरे वज़ूद की एक उम्दा जरूरत है
लहर हो चुका मेरा दिल
समन्दर के साथ हिलौरें ले रहा है
समन्दर का नहीं होना
मेरे वज़ूद का नहीं होना है
मैं समन्दर के बिना कामिल नहीं
०००००
रवि कुमार
मुख़ालिफ़त – विरोध, मक़नातीसी – चुंबकीय, दरयाफ़्त – अविष्कृत, सिम्त – तरफ़, ओर
हवासबाख़्ता – किंकर्तव्यविमूढ़, दस्तयाबी – उपलब्धि, वज़ूद – अस्तित्व, कामिल – संपूर्ण, सर्वांगपूर्ण
बहुत खुब ………….बहुत खुब
nice
समन्दर जैसा गहरा…
nice one…..
badhia
bhasha ke star par naye naye proyog aur chitrankan apki visheshta hai…
shubhkamnayein…
“बुलन्दियों को फतह करना
शायद मेरी दस्तयाबी रहे
पर गर्तों में शिरकत करना
मेरे वज़ूद की एक उम्दा जरूरत है”
यही है वह तरीका जो एकांगी न होकर समग्रता का विश्लेषण करता है . इस नवउदारीकरण के दौर में, बुद्धिजीवी के बौनेपन को दूर करने के लिए इसी तरह की रचनाओं की ज़रुरत है.
लहर हो चुका मेरा दिल
समन्दर के साथ हिलौरें ले रहा है
समन्दर का नहीं होना
मेरे वज़ूद का नहीं होना है
waah bahut khub
nice one……. gud
आपकी कविता को पढ़कर कुछ पंग्तियाँ जन्मी हैं, हालाँकि मैं बहुत छोटा हूँ.
सोचता था
लिखूंगा कविता
समुन्द्र पर
उस पर नतमस्तक
आकाश पर
लहराती लहरों पर
लेकिन समुन्द्र
जब से तुझे देखा है
कुछ लिखनें को
मन नहीं करता .
[क्या इन शब्दों से आपके जेहन में कोई चित्र उभरता है रवि कुमार जी ]
[] राकेश ‘सोऽहं’
बहुत सुन्दर कविता आभार !
Hi,
As per our today’s technological lifestyle,we all forget this type of creation in our life.
Above its really very old and interesting also.
Thank You Very Much!!
Ravi Bhaiya, Samandar si gahri aur taakatwar hai… lahron ki tarha aakar dil ko chhooti hai… It attracts like the magnet (maknaateesi khinchaaw)…thank You for a wonderful poem…
pls send me your contact no.