असली इंसान की तरह जिएंगे – मार्क्स
( a kavita poster by ravi kumar, rawatbhata)
शब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं. दरअसल हथौडे़ की तरह पड़ने और बुरी तरह झिंझोड़ डालने वाली उपमाओं के पीछे होता यह है कि इन शब्दों ने हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात किया है, हमें हमारी सीमाएं बताई हैं, और हमारी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, ऐसे भी सोचा जाना चाहिए.
जाहिर है कविता इस तरह हमारी चेतना के स्तर के परिष्कार का वाइस बनती है.
इस बार का कविता-पोस्टर है, मार्क्स की ऐसी ही कविता पंक्तियों का.
बडे़ आकार में देखने के लिए इस पर क्लिक करें……
०००००
रवि कुमार
पता है
बहुत दूर है मंजिल
इस जीवन में मिले
न मिले
ठहर कर
मौत का इंतजार करने
से लाख गुना बेहतर है
मंजिल के लिए सफर मे रहना
बहुत उम्दा लिखा है आप ने!
लक्ष्यहीन जीवन, निरूद्देश्य जीवन वाकई बोझ है
सार्थक है आज भी मार्क्स के ये शब्द
आकांक्षा, आक्रोश, आवेग, अभियान
शब्द चतुष्टय सिर पर चोट करते हैं, बेचैन करते हैं।
हमारी कायरता को ललकारते हैं – हाँ बन्धु, अपना जीवन कैसा हो यह अपने उपर ही निर्भर है।
— हमेशा सोचता रहा हूँ कि इस क्रांतिदर्शी ऋषि की बातों को व्यावहारिक जामा पहनाते हुए भूलें क्यों, कब और कैसे हो गईं? कौन जिम्मेदार थे? कहीं जटिल मानव स्वभाव ही तो नहीं था/है ?
set goals than life begins
nice
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्वीकार नहीं |
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम |
ओ कला ! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल !
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं !
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि-
छिछला, निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं !
हम, उंघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे |
हम–आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जियेंगे !
असली इन्सान की तरह जियेंगे |
–कार्ल मार्क्स
पूंजीवाद, विज्ञान और तकनीक ने वे सभी भौतिक हालात पैदा कर दिए जिससे सदियों से देखा जाने वाला वर्गवहीन समाज का सपना साकार होने की भूमि तैयार हो गयी और इस महान व्यक्ति ‘कार्ल मार्क्स’ के भरी जवानी में लिए इस दृढ संकल्प और जीवनभर की अथक मेहनत के सदके उन नियमों को खोज निकाला गया जिससे किसी भी वर्गीय समाज की गतिकी (the laws of motion of a particular society based upon two major classes whose intersts are directly opposed to one another) निर्धारित होती है. इन्हीं नियमों की खोज के सदके वे यह कहने में सफल हुए कि अब तक दार्शनिकों ने इस संसार की व्याख्या मात्र ही की है लेकिन असल मसला इसे बदलने का है.
सबसे ज़्यादा खुशी इस बात की है कि मार्क्स की कविता के इस पोस्टर को देख कर द्विवेदी जी के मुँह से कविता फूट पड़ी । बधाई पोस्टर की इस पोस्ट के लिये ।
‘‘ क्योंकि छिछला ,निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन हमें स्वीकार नही…..हम आकांक्षा और अभियान से जियेंगे ’’
माक्र्स से सचमुच जी सकनेवालो के लिए ही जैसे सोचा था।इसलिए मुक्तिबोघ ने ‘जो कुछ है उससे बेहतर के लिए’ मृत्युपर्यन्त संघर्ष किया ।
आपके चुनाव की तो तारीफ करता ही हूं भाई सा ! आपके रंग और नियोजन का भी कायल हूं। कार्ल माक्र्स की इस कविता के चेहरे को जिस तरह से आपने पोस्टर में नियोजित किया है वह सीधे दिमाग पर इंुक जाता है। ठुंक जाने से बेहतर शब्द नहीं मिल रहा है।
‘‘ क्योंकि छिछला ,निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन हमें स्वीकार नही…..हम आकांक्षा और अभियान से जियेंगे ’’
माकर्स ने सचमुच जी सकनेवालो के लिए ही जैसे सोचा था। इसलिए मुक्तिबोघ ने ‘जो कुछ है उससे बेहतर के लिए’ मृत्युपर्यन्त संघर्ष किया ।
आपके चुनाव की तो तारीफ करता ही हूं भाई सा ! आपके रंग और नियोजन का भी कायल हूं। कार्ल मार्कस की इस कविता के चेहरे को जिस तरह से आपने पोस्टर में नियोजित किया है वह सीधे दिमाग पर ठुंक जाता है। ठुंक जाने से बेहतर शब्द नहीं मिल रहा है।
समझ में आया कि कितने नकली इंसान की तरह जी रहे हैं हम…
इस कविता की दो लाइन बचपन में हिंदी किताब में पढ़ी थी… आज पूरा पढने को मिली शुक्रिया… तस्वीर प्रभावित करती है… बहुत शानदार…..
poori kavita aaj 29 saal baad padhi . aabhar.
satya
जी हाँ, शब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं. दरअसल ये कविता तो है ही हथौडे़ की तरह .
लेकिन आपकी कविता ने मुझे बुरी तरह झिंझोड़ daala है और मेरी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, मेरे blog पर jaakar dekhen.
सुन्दर और सार्थक। कविता के नीचे वर्ष 1936 दिया है्। ृपया सुधार लें।
यह कविता मेरी मार्क्स वाली किताब के पहले पन्ने पर है
मुझे अद्भुत प्रेरणा मिलती है इससे…
मार्क्स का बहुत अच्छा चयन
inspiratory reminder
Inspiratory reminder of Enthusiastic life
कोशिश करेंगे ऐसे ही जीने की।
आखिर फिर क्यों धर्म का आडम्बर दिखा कर पूंजीपति वर्ग जनता को गुमराह करता है?ज़ाहिर है कि,ऐसा गरीब और शोषित वर्ग को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जाता है,जिससे धर्म की आड़ में शोषण निर्बाध गति से चलता रहे.