शिवराम : अब यह मशाल है, और हम हैं.

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शिवराम

पिता का यूं अचानक चला जाना.

वैसे वे हमेशा हमारे लिए, अचानक ही होते थे. वे हमारी दुनिया में, हमारी चेतना में, हमारे व्यवहारों में यूं ही अचानक चले आते, और हमें हतप्रभ सा छोड़ अचानक ही गायब भी हो जाया करते. हमें पता ही नहीं चलता कि हमारी हिस्सेदारी कब यूं ही ख़त्म हो जाया करती, और हम लंबे समय तक उनकी अनुपस्थित उपस्थिति में आंदोलित होते रहते.  इस बार भी वे कुछ ऐसे ही पेश आए, यूं ही अचानक, कुछ भी समझने देने से पहले ही, जैसे उन्होंने सभी के हिस्सों की चादर समेटी जिसके एक कौने से हमारा हिस्सा भी झांक रहा था, उसे जैसे हवा मे लहराया एक जादूगर की तरह, और सब कुछ गायब. वह चादर भी, सबके हिस्से भी, और साथ में वे भी.

ऐसा लगता रहा जैसे कि जादूगरी चाल अभी पुनर्रचना करेगी और सभी कुछ पहले की तरह ही सामान्य हो जाएगा. बहुत से हिस्सों वाली चादर को लपेटे वे मुस्कुराते हुए से अभी यूं ही अचानक नमूदार हो जाएंगे.

शिवरामपर ज़िंदगी में जादू नहीं हुआ करते. प्रकृति अपने नियमों की श्रृंखला में आबद्ध अपनी राह चला करती है. हम अपने इच्छित विकल्पों के चुनाव की उम्मीदें कर सकते हैं, नियमों को अपने हितानुकूल होने की कल्पनाएं बुन सकते हैं, इन्हीं के आभामंड़ल में अपने-आपको भ्रमित बनाए रखते हुए एक कल्पनालोकी संसार रच सकते हैं. यह यथार्थ से पलायन का हमारा चुनाव हो सकता है, परंतु प्राकृतिक यथार्थ की चुनौतियों से जूझना उसी नियमबद्धता की सीमाओं में, उसी की छूटों के अंतर्गत हुआ करता है.

यही टीस है, यही मलाल है कि हम नियमबद्धताओं की इन सीमाओं और प्रदत्त छूटों के बीच से संभावनाएं नहीं खोज पाए. उन्होंने हमें समय ही नहीं दिया. हमने उन्हें कुछ ज़्यादा ही जल्द खो दिया. उन्होंने अपने आपको भी कुछ ज़्यादा ही जल्द खो दिया. हमने उनकी बंदिशों वाली परवाज़ के भी असीम आयाम देखे थे, पर अब जब उनकी उन्मुक्त उड़ानों को कई क्षितिज़ नापने थे, कई मंज़िलों से सरग़ोशी करनी थी, उनका शरीर चुक गया. दिल जवाब दे गया, चुपचाप, बिना किसी आहट के, बिना किसी आहो-फ़ुगां के.

वे अपने हेतु किसी को भी परेशान करना पसंद नहीं करते थे, जहां तक संभव हो चीज़ों से व्यक्तिगत रूप से ख़ुद जूझना चुनते थे. हमेशा अपने चुने हुए  सामाजिक कार्यभारों की भागमदौड़ में लगे रहते थे, और यह और कि आज के समय की चुनौतियों को देखते-समझते हुए अपने ऊपर निरंतर नई-नई जिम्मेदारियां लादते रहते थे. निरंतर अलग-अलग तरह का काम, कभी दिमाग़ी जुंबिशों का जख़ीरा, उनमें अलटी-पलटी, कभी शारीरिक दौड़भागों की श्रृंखलाएं. कभी शहर, कभी बाहर. देश के इस कोने से उस कोने तक को लाल पत्थर से पाटने का जज़्बा और रवायतों को उल्टे हाथ से पुनः लिखने की ज़िद. वे लगातार जूझते रहे, भागते रहे.

शिवराम

और इसी तरह भागते दौड़ते से वे इस दुनिया से भी कूच कर गए. शिवराम अब और नहीं रहे.

हमारे पास बचा रह गया है, उनकी सोच और समझ जो हमारे दिमागों में पुख़्तगी से पैबस्त है, जो उनके लिखे बोले हुए में सुरक्षित है, समय की चुनौतियों से जूझने का जज़्बा और कार्यभारों की श्रृंखलाएं, तथा संघर्षों और पक्षधरताओं की परंपरा की जलती मशाल.

अब यह मशाल है, हम हैं.
और इसे आगे थामते रहने वाले हाथों की श्रृंखला पैदा करते रहने का जुनून.

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शिवराम

हम उनके आकस्मिक अवसान पश्चात के चुनौतीपूर्ण क्षणों में संबल बनी मित्रों, साथियों और समूहों-संगठनों की व्यक्त संवेदनाओं और संकल्पों के लिए सभी का आभार प्रकट करते हैं. हम कृतज्ञ हैं.

०००००

रवि कुमार

(सोमवती देवी, पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’, रवि कुमार, शशि कुमार, पवन कुमार, आकांक्षा, रोहित पुरुषोत्तम, संगीता)

एक प्रतिक्रिया »

  1. उन्हें श्रद्धांजलि।
    एक जवान के लिए पिता बरगद की तरह होते हैं।
    जब तक रहते हैं, आप सोचते हैं कि उनकी छाँव बढ़ने नहीं दे रही।
    जब चले जाते हैं तो धूप लगती है।
    ज़िन्दगी ऐसी ही है बन्धु! धीर धरें।

  2. रवि भाई, मुझे द्विवेदी जी की पोस्ट से पता चला कि शिवराम जी नहीं रहे और उसी दिन पता चला कि आप उनके ज्येष्ठ पुत्र हैं। ईश्वर की नियति के सामने किसका बस चला है। उनके विचारों की मशाल हमेशा आलोकित रहे। इस दारुण दुख की घड़ी में हम आपके साथ है। पिता का साया सर से उठ जाना क्या होता है इसे मैं भली भांति जानता हूँ। आप सबल हो कर जिम्मेदारियों को वहन करें। आपका नम्बर मुझसे कहीं खो गया। इसलिए फ़ोन नहीं लगा सका। अवश्य ही कुछ दिनों में आपसे मिलने का यत्न करता हूँ।शिवराम जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

  3. भाई शिवराम के न रहने से यह दुनिया थोड़ी फीकी, थोड़ी बेरंग लग रही है.
    उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम इस दुनिया को रंगीन बनाने की कोशिश करें.

  4. मैं समझ सकता हूं मित्र…उन्हीं दिनों मेरे पिता भी बुरी तरह घायल और बीमार थे…पिता का जाना और वह भी एक ऐसे पिता का जो आपका आदर्श भी हो…नेता भी हो…

    मेरी तो उनसे बस एक मुलाक़ात थी…और ऐसा लगा कोई बेहद अपना चला गया हो…क्या कहूं…बस उस मशाल को थामे रहने और चलते जाने का संकल्प!

  5. अब मैं क्या कह सकता हूँ? मैं अभी तक समझ ही नहीं पा रहा हूँ कि व्यक्तिगत रूप से मैं ने क्या खो दिया है? कभी लगता है मेरी आँखें नहीं रही हैं, कभी लगता है मेरा हाथ कहीं खो गया है, कभी पैर गायब मिलता है। कभी गला अवरुद्ध हो जाता है जैसे मेरी आवाज चली गई है।
    लेकिन दायित्व वे रोज मुझ से बात करते हैं, सब यहीँ है, अवसाद को त्याग और जुट जा।
    कैसे श्रद्धांजलि दूँ उन्हें? शिवराम मेरे लिए सदैव जीवित रहेंगे, जीवन के आखिरी क्षण तक।

  6. …… और एक बात आज पहली बार इस पोस्ट पर लगे चित्रों को देख कर महसूस कर रहा हूँ कि शिवराम शारीरिक रूप से भी असीम सुंदरता के स्वामी थे। उन का आंतरिक सौंदर्य तो उन से मुलाकात के पहले दिन से देखा और महसूस किया है। ऐसा असीम सौन्दर्य जो अंदर से बाहर तक एक जैसा हो, बिरले ही देखने को मिलता है।।

  7. इस पल बैठा जब इस लेख को पढ़ रहा हूं। तो यह सोचकर सिहरन सी दौड जाती है। कि शिवरामजी अब नहीं है। एक अजीब सा सूनापन चारों ओर से घेर लेता है।
    अभी १४ सितंबर को काव्य-मधुबन के कार्यक्रम में स्टेज के पास था। तो उन्होंने कहा, ‘शरद, आज नवभारत टाईम्स में तुम्हारा व्यंग्य पढ ा। बहुत अच्छा लिख रहे हो। खूब लिखते जाओ।’ यह मेरे और उनके बीच का अंतिम संवाद रहा। बस रवि भाई, अब तो उनके सपनों को खूब साकार करना है। मेरी ओर से भी विनम्र श्रद्धांजलि।

  8. रविजी और दिनेशराय जी की पोस्ट्स द्वारा शिवरामजी की सोच और कर्म से परिचय हुआ । उनकी स्मृति को प्रणाम । रविजी , उनसे जुड़ी पोस्ट्स की लिंक भीीक साथ प्रकाशित करें ।

  9. मन कैसा हो रहा है लिख नहीं सकता
    साल बानवे में जयपुर में कवि हंसराज जी ने कहा किशोर इनको जानते हो ? ये शिवराम जी हैं
    फिर जनवादी लेखक संघ, फिर एक राष्ट्र स्तर का वामपंथी आन्दोलन…
    इम्प्रेसिव व्यक्तित्व

    जाने क्या कुछ खो देने को शापित है मनुष्य जाति
    इसी मशाल की लौ से संभव है, युगों का आरोहण… मैं अपनी मुट्ठी को बांधे हुए दायें हाथ को हवा में मजबूती से लहराते हुए उन्हें याद करने का साहस जुटा रहा हूँ.

  10. उनके नाटक पढ़े थे, पत्रिका पढ़ते थे और सोचते थे की इस व्यक्ति से मिलना बहुत जरुरी है, ये एकला ही क्रांति कर देगा और आप देखते रह जाओगे, फिर एक दो बार खतो खिताबत भी हुई, पर मजा नहीं आया, फिर मयंक जी के प्रोग्राम में उनको सुना और देखता रह गया, राजस्थान जैसे राज्य जन्हा सामन्तवाद का बोलबाला हमेशा से रहा है , वंहा वे उसके विरुद्ध खड़े हो जाते है, फिर एक ख़त जो उन्होंने सोहन शर्मा जी को लिखा था , वो पढ़ा , उस ख़त में उनकी मंशा साफ़ थी की हम तमाम प्रगतिशील शक्तिया एक हो और साम्राज्यवाद को लात मार कर अपने देश से भगा दे. हलाकि अब न तो शीवराम जी है और न ही सोहन शर्मा, पर इन दोने के विचार हमें आगे बढ़ाने होंगे और दुश्मन को बह्गना होगा… जिस दिन हमारे देश की शोषित जनता विद्रोह कर देगी उस दिन हर व्यक्ति में शीवराम और सोहन शर्मा होंगे और फिर क्रांति को कोई नहीं रोक सकता…. ‘आखर’ की तरफ से दोनों विद्वानों को हार्दिक श्रधांजलि

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