भूल भुलैया
( a poem by ravi kumar, rawatbhata )
औपचारिकताओं से लदा समय
एक अंतहीन सी भूल भुलैया में उलझा है
जहां दरअसल
आगे बढना और ज्यादा उलझते जाना है
तार्किकता से दूर
गणित का सिर्फ़ यही बचता है
हमारे मानसों में
संख्याएं हमें कहीं का नहीं छोड़ती
वे हमें गिनने की मशीनों में
तब्दील कर देती हैं
जोड़ बाकी लगाते हुए
हमारे लिए हर चीज़ सिर्फ़ साधन हो जाती है
और लगातार इसकी आवृति से
धीरे-धीरे हमारे साध्यों में
कब बदल जाती है
पता ही नहीं चलता
इस तरह चीज़ों में ही उलझे हुए हम
ख़ुद एक चीज़ में तब्दील हो गये हैं
और बाज़ार के नियमों से
संचालित होने लगे हैं
बच्चे पूछ रहे थे कल कि
यह मानवीयता क्या चीज़ होती है?
०००००
रवि कुमार