अर्थों के अनर्थ में
( अभी फेसबुक पर एक नोट के रूप में लवली गोस्वामी का यह सम्पादकीय पढ़ने को मिला, जो उन्होंने बहुभाषी वेबपत्रिका ‘इंडियारी’ के लिए लिखा है. इसमें उन्होंने ‘विकास’ और ‘सहिष्णुता’ शब्दों पर छोटी ही सही पर एक माक़ूल और सारगर्भित टिप्पणी की है. आवश्यकता महसूस हुई कि इसे यहां के पाठकों के लिए तथा नेट पर सामान्य रूप से उपलब्ध करवाना चाहिए. इसलिए उनकी अनुमति से यहां उस संपादकीय टिप्पणी की अविकल प्रस्तु्ति की जा रही है. )
आजकल चीजों की शुरूआत तो कर लेती हूँ, ख़त्म करने का कोई तरीक़ा नही सूझता। ऐसा लगता है समाज के साथ – साथ मन में भी लगातार फैलते और विलीन होते वलयों की एक सतत श्रृंखला नित्यप्रति आकर लेती रहती है जिसका सातत्य आपको उनकी परिधि और केंद्र दोनों के आकलन के लिए अयोग्य प्रमाणित कर दे, यह तो व्यक्तिगत बात हुई। वह व्यक्तिगत बात जो समाज से परावर्तन पाकर मन में घटित होती है,इसे यहीं छोड़ते हैं। तो जैसा कि हमारा समाज इन दिनों लगातार टूटते – बनते शक्ति, सत्ता, सहिष्णुता और धर्म के वलयों को आकार देता भयावह रूप ले रहा है वह आपकी इस निरीह विचारक के लिए भी कम चिंताजनक नही है। बात आगे बढ़ाने से पहले मैं आपसे कुछ शब्दों पर चर्चा करती हूँ।
पिछले एक साल से लगातार कुछ शब्दों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया है। यह सम्पादकीय है और यहाँ लिखने की सीमाएँ होती है इसलिए मैं बस दो शब्द चर्चा के लिए चुनना चाहूँगी।
प्रथम तो “विकास”। मैं अपने समकालीन अमेरिकी रेडिकल पर्यावरण – चिंतक डेरिक जेनसन को स्मरण करना चाहूंगी। डेरिक ने आनलाईन पत्रिका “फेयर ऑब्ज़र्वर” में अपने लेख में कई रोचक टिप्पणियाँ लिखते हैं। वे लिखते हैं कि मनुष्य को विकास के मायने समझने की जरुरत है। डेरिक कहते हैं कि, “एक बालक का विकास एक वयस्क में होता है; इल्ली विकास करके तितली का रूप धारण करती है, परन्तु हरे – भरे घास का मैदान कभी विकसित होकर सीमेंट के दड़बेनुमा घरों में नही बदलता; समुद्रतट कभी विकसित होकर व्यवसायिक बंदरगाह में नही बदलता एक जंगल कभी सडकों और खाली ज़मीन के टुकड़ों में नही बदलता। डेरिक आगे कहते हैं कि यह सही तरीके से चीजों/संकल्पंनाओं को सम्बोधित नही किये जाने के परिणाम हैं और इसे ऐसे लिखा/कहा जाना चाहिए कि “समुद्रतट को बंदरगाह में “विकसित” करके वस्तुतः उसे नष्ट किया गया; जंगल को मानव (डेरिक से अलग मैं यहाँ “अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग” शब्द का प्रयोग करना चाहूंगी) के उपयोग हेतु प्राकृतिक संसाधनों के निर्माण के लिए “नष्ट” किया गया। लेखक का कहना है कि विकास शब्द को मानव जाति पर गलत तरीके से थोप दिया गया है और मूलतः प्रकृति और प्रकारांतर से पृथ्वी और मनुष्य के विनाश को “विकास ” की संज्ञा से स्थानांतरित (रिप्लेस) करके अधिसंख्यक जनता को दिग्भ्रमित किया जा रहा है। मैं इस मुद्दे पर डेरिक से सहमत हूँ।
यहाँ कुछ और बातें जोड़ी जा सकती है यथा साऊथ अमेरिका में सांस्थानिक पशु पालन (cattle ranching) का कार्य अधिकतर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका-मूल के पशु-व्यापारी करते हैं। ब्राज़ील से निर्यातित लकड़ी के लिए मुख्य बाजार फिर से यू एस ही है। मैं भारत में नकदी फसल (कैश क्रॉप्स) के कारण आई आत्महत्याओं की बात और अफ़्रीकी खानों से बहुराष्ट्रीय पूंजीपतियों/कंपनियों द्वारा निकाले जाने वाले कोबाल्ट, कॉपर, कोल्टन, प्लेटेमियम डायमंड आदि के कारण वहां हो रही तबाही को अगर ज़रा देर के लिए छोड़ भी दूँ तो अमेज़न के इन व्यवसायों की वजह से “धरती का फेफड़ा” कही जाने वाली अमेज़न घाटी लगातार नष्ट हो रही है। मई २०१४ की बात है अमेज़न घाटी में पर्यावरण संरक्षक कार्यकर्त्ता सिस्टर डौर्थी स्टॅन्ग (Sister Dorothy Stang) की सस्टेनेबल डेवलपमेंट से जुड़ा होने के बाद भी इस कारण हत्या कर दी गई कि वे सांस्थानिक पशुचारण एवं पशुपालन का विरोध कर रही थी।
यहाँ आप भारत के जंगलों के लिए लगातार लड़ रहे और उग्रवादी का तमगा टांक कर मार दिए जाने वाले आदिवासियों को भी स्मरण कर लें तो शायद “विकास” की तथाकथित अवधारणा को समझने में आपको और आसानी होगी जो कभी सस्टेनेबल (sustainable ) नही होता। खैर, इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा और हम जल्द ही प्राकृतिक विपदाओं के भयानक चक्र में फंसकर “विकास’गति ” को प्राप्त होंगे। यह होना ही है क्योंकि हम जैसे “विकासशील” मूर्खों को पहाड़, जंगल और नदी की जगह कंक्रीट के शमशान, परमाणु और मानवीय मलबा, प्लास्टिक के ढेर और ज़हरीली वायु से अधिक लगाव है। तो विकास को मैं यही छोड़ती हूँ। इस महान ध्येय और आधुनिक मनुष्य के उत्थान हेतु अतीव आवश्यक (कदाचित अपरिहार्य) ज़रूरत की व्याख्या आपकी इस तुच्छ विचारक के बस का रोग नही नही है। इसपर फैसला आपको ही करना है, संगठित होकर आदिवासियों और पर्यावरणविदों का साथ दें या आने वाली पीढ़ियों को बीमारों और लाचारों जैसा जीवन। जबकि इतना सब कह ही रही हूँ इतना और कह दूँ कि मेरा तात्पर्य “अर्थ आवर” मनाने और नहाते वक़्त पानी कम खर्च करने के महान उपक्रम के बाद अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेने वाली संतुष्टि से कतई नही है आपको लड़ना अंततः पूंजीवाद से ही है।
फिर एक दूसरा बहुप्रचलित शब्द स्मृत होता है। वर्तमान समय में हम सबका प्यारा शब्द जिसने देश के राजनैतिक-सामाजिक वातावरण को चाइनीज़ रसोइये के द्वारा फ्राईंग पैन में छौंक लगाने हेतु हिलाये गए शिमला मिर्च और प्याज के टुकड़ों की तरह हिला रखा है, जी, आपने ठीक समझा वह शब्द है “सहिष्णुता”। यह शब्द मेरे होंठों पर आजकल अजीब सी मुस्कुराहट का कारण बना हुआ है। इसके लिए आप मेरे प्रति पर्याप्त असहिष्णु हो ही सकते हैं, 🙂 खैर यह तो हास्य था। मैं मुद्दे पर आती हूँ।
इन दिनों मैं अपने एक प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी। उसी क्रम में कई ग्रंथों से फिर से, कुछ से पहली बार गुजरना हुआ। मैं जब नाट्यशास्त्र पढ़ रही थी भरत मुनि की एक रोचक टिप्पणी मुझे दिखाई दी और मैंने सोचा मुझे यह आपसे जरूर शेअर करनी चाहिए। नाट्य शास्त्र के २७वें अध्याय में दर्शक की योग्यता का बखान है। जिसमे भरतमुनि लिखते है जो मनुष्य इतना संवेदनशील हो कि शोक के दृश्य को देखकर शोक का अनुभव कर सके, आनंदजनक दृश्य देखकर उल्लसित हो सके एवं दैन्यभाव के प्रदर्शन के समय दीनत्व का अनुभव कर सके केवल वही नाटक का योग्य श्रोता है। नाटक के श्रोता को भाषा, संस्कृति-विधान, शब्द शास्त्र, छंदशास्त्र, कला, शिल्प एवं रसों का ज्ञाता होना चाहये, तभी वह नाटक का योग्य दर्शक/श्रोता है। भारत मुनि लिखते हैं कि हम समझ ही सकते हैं कम आयु वाला मनुष्य श्रृंगार और अधिक वयस्क प्राणी पौराणिक अथवा धार्मिक प्रहसन पसंद करेगा परन्तु हम दर्शक से इतनी सहृदयता कि आशा करते हैं कि अगर वह रस का ज्ञाता है तब खुद को प्रहसन के अनुकूल बना सकेगा।
यह रोचक टिप्पणी है। न सिर्फ नाटक, साहित्य एवं अन्य कलाओं के सन्दर्भ में ही इस संस्कार का पालन होना चाहिए। परन्तु हम देखते हैं कि आधुनिक भारत में यह संस्कृति लुप्तप्राय है। यह वस्तुतः मनुष्य की संवेदनशीलता पर, उसकी ग्रहण करने की योग्यता पर, उसके निरंतर परिष्करण पर और इन सबसे बढ़कर “ग्रहण करने की सहिष्णुता” पर रोचक टिप्पणी है। ग्रहण करना अभ्यास का विषय होता है। कोई विद्वान, विचारक, लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक अथवा कोई अन्य सहृदय मनुष्य अगर आपसे शालीन असहमति के साथ कोई बात कह रहा है तो मानव को चाहिए कि तुरंत बात काट कर, आक्रामक शब्दावली के प्रयोग से अथवा अपशब्द के पत्थर उठा कर सामने वाले का सर फोड़ देने के प्रतिक्रियावादी व्यवहार से बचे, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है यह संस्कृति ही गांधी के देश में विलुप्त हो गई है।
क्या कहूँ कि शब्द नही मिलते हर तरफ अजीब सी ज़हालत का माहौल है। उग्रवादी हिन्दू समूह ज़रा-ज़रा सी बात पर हत्या एवं बलात्कार करने की धमकी दे रहे हैं और बहुसंख्यक जनता को अगले तीनेक साल इंतज़ार करना है कि चुनाव आये और वे इसका जवाब दे सकें। सबसे बड़ी बात क्या पता जनता की अल्पकालीन स्मृति में यह भयानक समय रहेगा भी या अंतिम साल में किये गए लोक-लुभावन फ़ैसले फिर से एक बार यही माहौल झेलने के लिए हमें बाध्य कर देंगे। यह सब तो भविष्य के गर्भ में हैं पर मुझे कहने में संदेह नही कि पिछले ही सम्पादकीय में मैंने जब पाकिस्तानी भीड़ का उदाहरण देते हुए यह कहा था कि आने वाले समय में इस बौखलाई भीड़ का सामना हमें भी करना पड़ेगा तब मैं सिर्फ आशंका प्रकट कर रही थी, जो महज महीने भर में सही साबित हुई। भय होता है कि मेरे अन्य डर भी हक़ीक़त न बन जाएँ। खैर, फ़िलहाल विदा लेती हूँ, एक सहिष्णु भविष्य की प्रतीक्षा के साथ।
० लवली गोस्वामी
दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.