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अर्थों के अनर्थ में – लवली गोस्वामी

सामान्य

अर्थों के अनर्थ में


cover_indiaree082015-hindi( अभी फेसबुक पर एक नोट के रूप में लवली गोस्वामी का यह सम्पादकीय पढ़ने को मिला, जो उन्होंने बहुभाषी वेबपत्रिका ‘इंडियारी’ के लिए लिखा है. इसमें उन्होंने ‘विकास’ और ‘सहिष्णुता’ शब्दों पर छोटी ही सही पर एक माक़ूल और सारगर्भित टिप्पणी की है. आवश्यकता महसूस हुई कि इसे यहां के पाठकों के लिए तथा नेट पर सामान्य रूप से उपलब्ध करवाना चाहिए. इसलिए उनकी अनुमति से यहां उस संपादकीय टिप्पणी की अविकल प्रस्तु्ति की जा रही है. )


 

आजकल चीजों की शुरूआत तो कर लेती हूँ, ख़त्म करने का कोई तरीक़ा नही सूझता। ऐसा लगता है समाज के साथ – साथ मन में भी लगातार फैलते और विलीन होते वलयों की एक सतत श्रृंखला नित्यप्रति आकर लेती रहती है जिसका सातत्य आपको उनकी परिधि और केंद्र दोनों के आकलन के लिए अयोग्य प्रमाणित कर दे, यह तो व्यक्तिगत बात हुई। वह व्यक्तिगत बात जो समाज से परावर्तन पाकर मन में घटित होती है,इसे यहीं छोड़ते हैं। तो जैसा कि हमारा समाज इन दिनों लगातार टूटते – बनते शक्ति, सत्ता, सहिष्णुता और धर्म के वलयों को आकार देता भयावह रूप ले रहा है वह आपकी इस निरीह विचारक के लिए भी कम चिंताजनक नही है। बात आगे बढ़ाने से पहले मैं आपसे कुछ शब्दों पर चर्चा करती हूँ।

पिछले एक साल से लगातार कुछ शब्दों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया है। यह सम्पादकीय है और यहाँ लिखने की सीमाएँ होती है इसलिए मैं बस दो शब्द चर्चा के लिए चुनना चाहूँगी।

चित्र- रवि कुमार, रावतभाटाप्रथम तो “विकास”। मैं अपने समकालीन अमेरिकी रेडिकल पर्यावरण – चिंतक डेरिक जेनसन को स्मरण करना चाहूंगी। डेरिक ने आनलाईन पत्रिका “फेयर ऑब्ज़र्वर” में अपने लेख में कई रोचक टिप्पणियाँ लिखते हैं। वे लिखते हैं कि मनुष्य को विकास के मायने समझने की जरुरत है। डेरिक कहते हैं कि, “एक बालक का विकास एक वयस्क में होता है; इल्ली विकास करके तितली का रूप धारण करती है, परन्तु हरे – भरे घास का मैदान कभी विकसित होकर सीमेंट के दड़बेनुमा घरों में नही बदलता; समुद्रतट कभी विकसित होकर व्यवसायिक बंदरगाह में नही बदलता एक जंगल कभी सडकों और खाली ज़मीन के टुकड़ों में नही बदलता। डेरिक आगे कहते हैं कि यह सही तरीके से चीजों/संकल्पंनाओं को सम्बोधित नही किये जाने के परिणाम हैं और इसे ऐसे लिखा/कहा जाना चाहिए कि “समुद्रतट को बंदरगाह में “विकसित” करके वस्तुतः उसे नष्ट किया गया; जंगल को मानव (डेरिक से अलग मैं यहाँ “अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग” शब्द का प्रयोग करना चाहूंगी) के उपयोग हेतु प्राकृतिक संसाधनों के निर्माण के लिए “नष्ट” किया गया। लेखक का कहना है कि विकास शब्द को मानव जाति पर गलत तरीके से थोप दिया गया है और मूलतः प्रकृति और प्रकारांतर से पृथ्वी और मनुष्य के विनाश को “विकास ” की संज्ञा से स्थानांतरित (रिप्लेस) करके अधिसंख्यक जनता को दिग्भ्रमित किया जा रहा है। मैं इस मुद्दे पर डेरिक से सहमत हूँ।

यहाँ कुछ और बातें जोड़ी जा सकती है यथा साऊथ अमेरिका में सांस्थानिक पशु पालन (cattle ranching) का कार्य अधिकतर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका-मूल के पशु-व्यापारी करते हैं। ब्राज़ील से निर्यातित लकड़ी के लिए मुख्य बाजार फिर से यू एस ही है। मैं भारत में नकदी फसल (कैश क्रॉप्स) के कारण आई आत्महत्याओं की बात और अफ़्रीकी खानों से बहुराष्ट्रीय पूंजीपतियों/कंपनियों द्वारा निकाले जाने वाले कोबाल्ट, कॉपर, कोल्टन, प्लेटेमियम डायमंड आदि के कारण वहां हो रही तबाही को अगर ज़रा देर के लिए छोड़ भी दूँ तो अमेज़न के इन व्यवसायों की वजह से “धरती का फेफड़ा” कही जाने वाली अमेज़न घाटी लगातार नष्ट हो रही है। मई २०१४ की बात है अमेज़न घाटी में पर्यावरण संरक्षक कार्यकर्त्ता सिस्टर डौर्थी स्टॅन्ग (Sister Dorothy Stang) की सस्टेनेबल डेवलपमेंट से जुड़ा होने के बाद भी इस कारण हत्या कर दी गई कि वे सांस्थानिक पशुचारण एवं पशुपालन का विरोध कर रही थी।

यहाँ आप भारत के जंगलों के लिए लगातार लड़ रहे और उग्रवादी का तमगा टांक कर मार दिए जाने वाले आदिवासियों को भी स्मरण कर लें तो शायद “विकास” की तथाकथित अवधारणा को समझने में आपको और आसानी होगी जो कभी सस्टेनेबल (sustainable ) नही होता। खैर, इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा और हम जल्द ही प्राकृतिक विपदाओं के भयानक चक्र में फंसकर “विकास’गति ” को प्राप्त होंगे। यह होना ही है क्योंकि हम जैसे “विकासशील” मूर्खों को पहाड़, जंगल और नदी की जगह कंक्रीट के शमशान, परमाणु और मानवीय मलबा, प्लास्टिक के ढेर और ज़हरीली वायु से अधिक लगाव है। तो विकास को मैं यही छोड़ती हूँ। इस महान ध्येय और आधुनिक मनुष्य के उत्थान हेतु अतीव आवश्यक (कदाचित अपरिहार्य) ज़रूरत की व्याख्या आपकी इस तुच्छ विचारक के बस का रोग नही नही है। इसपर फैसला आपको ही करना है, संगठित होकर आदिवासियों और पर्यावरणविदों का साथ दें या आने वाली पीढ़ियों को बीमारों और लाचारों जैसा जीवन। जबकि इतना सब कह ही रही हूँ इतना और कह दूँ कि मेरा तात्पर्य “अर्थ आवर” मनाने और नहाते वक़्त पानी कम खर्च करने के महान उपक्रम के बाद अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेने वाली संतुष्टि से कतई नही है आपको लड़ना अंततः पूंजीवाद से ही है।

sprk3फिर एक दूसरा बहुप्रचलित शब्द स्मृत होता है। वर्तमान समय में हम सबका प्यारा शब्द जिसने देश के राजनैतिक-सामाजिक वातावरण को चाइनीज़ रसोइये के द्वारा फ्राईंग पैन में छौंक लगाने हेतु हिलाये गए शिमला मिर्च और प्याज के टुकड़ों की तरह हिला रखा है, जी, आपने ठीक समझा वह शब्द है “सहिष्णुता”। यह शब्द मेरे होंठों पर आजकल अजीब सी मुस्कुराहट का कारण बना हुआ है। इसके लिए आप मेरे प्रति पर्याप्त असहिष्णु हो ही सकते हैं, 🙂 खैर यह तो हास्य था। मैं मुद्दे पर आती हूँ।

इन दिनों मैं अपने एक प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी। उसी क्रम में कई ग्रंथों से फिर से, कुछ से पहली बार गुजरना हुआ। मैं जब नाट्यशास्त्र पढ़ रही थी भरत मुनि की एक रोचक टिप्पणी मुझे दिखाई दी और मैंने सोचा मुझे यह आपसे जरूर शेअर करनी चाहिए। नाट्य शास्त्र के २७वें अध्याय में दर्शक की योग्यता का बखान है। जिसमे भरतमुनि लिखते है जो मनुष्य इतना संवेदनशील हो कि शोक के दृश्य को देखकर शोक का अनुभव कर सके, आनंदजनक दृश्य देखकर उल्लसित हो सके एवं दैन्यभाव के प्रदर्शन के समय दीनत्व का अनुभव कर सके केवल वही नाटक का योग्य श्रोता है। नाटक के श्रोता को भाषा, संस्कृति-विधान, शब्द शास्त्र, छंदशास्त्र, कला, शिल्प एवं रसों का ज्ञाता होना चाहये, तभी वह नाटक का योग्य दर्शक/श्रोता है। भारत मुनि लिखते हैं कि हम समझ ही सकते हैं कम आयु वाला मनुष्य श्रृंगार और अधिक वयस्क प्राणी पौराणिक अथवा धार्मिक प्रहसन पसंद करेगा परन्तु हम दर्शक से इतनी सहृदयता कि आशा करते हैं कि अगर वह रस का ज्ञाता है तब खुद को प्रहसन के अनुकूल बना सकेगा।

n5यह रोचक टिप्पणी है। न सिर्फ नाटक, साहित्य एवं अन्य कलाओं के सन्दर्भ में ही इस संस्कार का पालन होना चाहिए। परन्तु हम देखते हैं कि आधुनिक भारत में यह संस्कृति लुप्तप्राय है। यह वस्तुतः मनुष्य की संवेदनशीलता पर, उसकी ग्रहण करने की योग्यता पर, उसके निरंतर परिष्करण पर और इन सबसे बढ़कर “ग्रहण करने की सहिष्णुता” पर रोचक टिप्पणी है। ग्रहण करना अभ्यास का विषय होता है। कोई विद्वान, विचारक, लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक अथवा कोई अन्य सहृदय मनुष्य अगर आपसे शालीन असहमति के साथ कोई बात कह रहा है तो मानव को चाहिए कि तुरंत बात काट कर, आक्रामक शब्दावली के प्रयोग से अथवा अपशब्द के पत्थर उठा कर सामने वाले का सर फोड़ देने के प्रतिक्रियावादी व्यवहार से बचे, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है यह संस्कृति ही गांधी के देश में विलुप्त हो गई है।

क्या कहूँ कि शब्द नही मिलते हर तरफ अजीब सी ज़हालत का माहौल है। उग्रवादी हिन्दू समूह ज़रा-ज़रा सी बात पर हत्या एवं बलात्कार करने की धमकी दे रहे हैं और बहुसंख्यक जनता को अगले तीनेक साल इंतज़ार करना है कि चुनाव आये और वे इसका जवाब दे सकें। सबसे बड़ी बात क्या पता जनता की अल्पकालीन स्मृति में यह भयानक समय रहेगा भी या अंतिम साल में किये गए लोक-लुभावन फ़ैसले फिर से एक बार यही माहौल झेलने के लिए हमें बाध्य कर देंगे। यह सब तो भविष्य के गर्भ में हैं पर मुझे कहने में संदेह नही कि पिछले ही सम्पादकीय में मैंने जब पाकिस्तानी भीड़ का उदाहरण देते हुए यह कहा था कि आने वाले समय में इस बौखलाई भीड़ का सामना हमें भी करना पड़ेगा तब मैं सिर्फ आशंका प्रकट कर रही थी, जो महज महीने भर में सही साबित हुई। भय होता है कि मेरे अन्य डर भी हक़ीक़त न बन जाएँ। खैर, फ़िलहाल विदा लेती हूँ, एक सहिष्णु भविष्य की प्रतीक्षा के साथ।

० लवली गोस्वामी


12359882_10207953335140126_2807706114200277009_nलवली गोस्वामी

दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.


दुनिया भर के प्रेम के लिए – लवली गोस्वामी की कविताएं

सामान्य

दुनिया भर के प्रेम के लिए
लवली गोस्वामी की कविताएं


10982066_10205980191812776_7742250801963854610_nइस बार प्रस्तुत हैं लवली गोस्वामी की कुछ कविताएं। दर्शन, मनोविज्ञान एवं मिथकों पर वे गंभीर लेखन करती रही हैं और अब सामने आई उनकी कविताएं भी चर्चा में हैं। उनके सामाजिक सरोकार और ज़मीनी सक्रियता के हासिल, उनकी कविताओं में और अधिक मुखर हो उठते हैं, स्पष्टता से अभिव्यक्त होते हैं। इन दिनों उनकी प्रेम और मिथकों पर भी कुछ कविताएं पढ़ने में आईं जिनमें वर्तमान संदर्भों में इन्हें एक अलहदा नज़रिये से देखा गया है। वे फिर कभी यहां प्रस्तुत की जाएंगी, फिलहाल इन तीन कविताओं से गुजर लिया जाए।


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कायांतरण

याद करती हूँ तुम्हें
जब उदासीनता के दौर धूल के बग़ूलों की तरह गुजरतें हैं
स्मृतियों की किरचें नंगे पैरों में नश्तर सी चुभती हैं
याद करती हूँ और उपसंहार के सभी अनुष्ठान झुठलाता
प्रेम गुजरता है आत्मा से भूकम्प की तरह

अब भी सियासत गर्म तवे सी है
जिसमे नाचती है साम्प्रदायिकता और नफरत की बूँदे
फिर वे बदलती जातीं हैं अफवाहों के धुएं में
दंगों के कोलाहल में

अब भी नाकारा कहे जाने वाले लोगों की जायज – नाजायज औलादें
कुपोषण से फूले पेट लेकर शहरों के मलबे में बसेरा करती हैं
होठों पर आलता पोतती वेश्याएं अभी भी
रोग से बजबजाती देह का कौड़ियों के मोल सौदा करती है
मैं वहां कमनीयता नही देखती
मैं वहां वितृष्णा से भी नही देखती
उनसे उधार लेती हूँ सहने की ताक़त

दुःख की टीस बाँट दी मैंने
प्रेमियों संग भागी उन लड़कियों में
जिन्हे जंगलों से लाकर प्रेमियों ने
मोबाइल के नए मॉडल के लिए शहर में बेंच दिया
उन किशोरियों में जिनके प्रेम के दृश्य
इंटरनेट में पोर्न के नाम पर पाये गए

तिरिस्कार का ताप बाँट दिया उनमे
जो बलात्कृत हुईं अपने पिताओं – दाताओं से
जिनकी योनि में शीशे सभ्यता की रक्षा के नाम पर डलवाये गए

तुम्हे याद करती हूँ कि
दे सकूँ अपनी आँखों का जल थोड़ा – थोड़ा
पानी मर चुकी सब आँखों में

हमारी राहतों के गीत अब
लगभग कोरी थालियों की तृप्ति में गूंजते हैं
देह का लावण्य भर जाता है सभ्यता के सम्मिलित रुदन में
कामना निशंक युवतियों की खिलखिलाहट का रूप ले लेती है

अक्सर याद करती हूँ तुम्हे
सभ्यताओं से चले आ रहे
जिन्दा रह जाने भर के युद्ध के लिए
दुनिया भर के प्रेम के लिए
उजली सुबह के साझा सपने के लिए
फिर मर जाने तक जिन्दा रहने के लिए।
०००००

प्रेम के बिंब

यह चाँद के लिए चकोर होने सा नहीं है
प्रेम समय के लिए गोधूलि की बेला है
अँधेरे – उजाले का संधिकाल है
जहाँ न सूरज है न चाँद है
वह समय जब सांध्य तारा अपना अस्तित्व तलाशता है

प्रेम है चीनी कथाओं का वह फल जिससे मन्दाकिनी निकली
जो बहा ले गई आकाश के सबसे अधिक चमकीले दो तारों के मध्य आकाश गंगा
अब एक दिन मुअय्यन है उनके मिलन को पूरे साल में
और मिलन का वह दिन लोगों के लिए उत्सव है

प्रेम का होना वसंत की मीठी बयार नहीं है
यह पतझड़ के पत्तों का रूखापन भी नहीं है
यह बरसात की खदबदाती टपकती हंसी नहीं है
तो शीत की कंपकपाती उजली रात भी नहीं है

यह ऋतुओं का संधिकाल है
वह समय जब लगता है
सुख – दुःख ग्लानि – क्लेश मान – अवमानना का सबसे तीव्र संक्रमण
जब सबसे तुनकमिज़ाज होते हैं सब ख्याल
अपनी ही तासीर अजनबी लगती है
और सबसे प्रिय भोजन भी अरुचि पैदा करता है
जब सब अगले मौसम के फूल फूटने वाले होते

और हवाओं में आने वाले मौसम की आहट होती है
यह न नया होता है न पुराना होता है
घर की औरत के लिए औसारे की तरह
जो न उसका अपना होता है
न बेगाना होता है

प्रेम का होना फूल खिलने सा नहीं है
यह पत्ते झड़ने सा भी नहीं है
अगर यह पूर्णतः पल्ववित पेड़ नहीं
तो बीज से अलग अस्तित्व तलाशता अंकुर भी नहीं
यह आंधी से लड़ता किशोरवय पौधा है
जिसमें लचक है
और टूट जाने का भय भी
जिसमें सामर्थ्य है
और फिर से सँभल जाने का आशय भी

प्रेम तुम्हारी चंचल आँखों की ताब नहीं है
यह मेरी नज़र का मान भी नहीं है
यह कामनाओं के उपवन में उगी अवांछित पौध नहीं
तो ज़रुरत से सींच कर उगाया गया अलंकरण भी नहीं
यह चाय बागान में लगाया गया सिल्वर ओक है
वह विश्राम स्थल जो हमारी निरीहता के पलों में
खुद टूट कर हमारी आत्मा को निराशा की तेज़ धूप
और हक़ीक़तों की उत्ताल हवा से बचाता है

०००००

स्वीकृतियाँ

मैं हमेशा अपने भाव छिपाती रही खुद से
भावनाओं का आना कविताओं का आना था
मुझे भय लगता रहा मन में कविता के आने से
कटुता और रुक्षता के रीत जाने से
तितलियों के रंगों से अधिक उनकी निरीहता से
फूलों की महक से अधिक उनकी कोमलता से
बारिश की धमक से अधिक ख़ुद भींग जाने से

शक्तिशाली होने का अर्थ उन्माद के क्षणों में एकाकी होना है
विस्तृत होने का अर्थ आघात के लिए सर्वसुलभ होना है
सबसे गहरी अँधेरी खाईयों की तरफ बारिश का पानी प्रचंड वेग से बहता है
ऊँचे और विस्तृत पहाड़ सबसे अधिक भूस्खलन के शिकार होते हैं
बड़े तारे सबसे शक्तिशाली ब्लेक हॉल में बदलते हैं
ठूँठ कठोरता और पौधे लचक के कारण बचे रहते हैं
फलों से लदे विशाल हरे पेड़ आंधी में सबसे पहले टूटते हैं

महानता के रंग -रोगन नही चाहिए थे मुझे
पर इंकार के सब मौके मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए
घोषणापत्रों पर मुझे आह्वान के नारों की तरह उकेर दिया गया
कोई व्यंग्य से हँसा मैं कालिदास हुई
किसी ने अपमानित किया मैं शर्मिष्ठा हुई
किसी ने नफ़रत की मैं ईसा हो गई
जब-जब किसी ने अनुशंसा की
मैं सिर्फ सन्देश रह गई
मैं सिर्फ शब्द बनी रही
सबने अपने-अपने अर्थ लिए
मैं सापेक्ष बनी रही
सब मुझे अपने विपक्ष में समझते रहे

जब भी मौसम ने दस्तक दी मैंने चक्रवात चुने
जब गर्मियाँ आई मुझे दोपहर की चिलचिलाती धूप भली लगी
जब सर्दियाँ आई माघ की ठंढ
(यूँ ही नही कहते हमारे गांव में माघ के जाड़ बाघ नियर)
सामर्थ्य नही था मुझमे पर विवशता में हिरण भी आक्रामक होता है
मुझे उदाहरण भी नही बनना था पर मिसालों के आभाव ने समाज की बुद्धि कुंद कर दी
और मुझे योग्यता के विज्ञापन में बदल दिया गया

सिर्फ इसलिए किसी को गैरजरुरी सी शुरुआत में बदल जाना था
महानताओं ने धीरे से क्षमा कर दी उसकी गलतियाँ
पलायन एक सुविधापूर्ण चयन होता है
चुनौतीपूर्ण चयन अहम का आहार होता है

जिसकी बलि चढ़ा दी जाये वह समर्थ नही कहलाता
वरना समाज अभिमन्यु की जगह अरावन की प्रशस्ति गाता

०००००

लवली गोस्वामी


दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.


 

चित्रकार के प्रेम की अकथ कथा – लवली गोस्वामी

सामान्य

चित्रकार के प्रेम की अकथ कथा


raja ravi verma - self potrait( अभी फेसबुक पर एक नोट के रूप में लवली गोस्वामी का राजा रवि वर्मा और उनके काम की पड़ताल करता यह महत्त्वपूर्ण आलेख पढ़ने को मिला. आवश्यकता महसूस हुई कि इसे नेट पर सामान्य रूप से उपलब्ध करना चाहिए. इसलिए उनकी अनुमति से यहां उस आलेख की अविकल प्रस्तु्ति की जा रही है. )


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किसी ऐसे चरित्र पर लिखना वाकई मुश्किल होता है जो आपको कहीं प्रभावित करता हो। मनोगतता, भावना अक्सर वस्तुगतता पर भारी पड़ती है और आप निरपेक्ष मूल्यांकन से चूक जाते हैं, इसी एक समस्या के कारन मैं राजा रवि वर्मा पर लिखने से हमेशा बचती रही हूँ । अधिक समय नही बीता है जब किसी फिल्म की वजह से राजा रवि वर्मा का नाम भारत की आम जनता तक पहुंचा, यहाँ मुझे कहना होगा कि हम भारतीय अपनी बौद्धिक सम्पदा को पहचानने और उसे सम्मान देने के मामले में बहुत कृपण हैं, जिस चित्रकार ने पुराणो से ईश्वर को घर के कैलेंडरों तक पहुँचाया वह साधारण भारतीय के लिए लगभग गुमनाम ही रहा. यह कुछ उस तरह की घटना है कि भारत के अधिकतर लोग चर्चित कविताओं की पंक्तियों का उपयोग तो अपनी रोजाना की बातचीत में कर जाते हैं परन्तु यह नही जानते कि उस कवि का नाम क्या है। इस प्रसंग को यहीं छोड़ते हैं. हम रंजीत देसाई के मूलतः मराठी में लिखे एवं विक्रांत पाण्डेय द्वारा अंग्रेजी में अनूदित राजा रवि वर्मा की कहानी के आधार पर कला और प्रेम के कुछ रोचक दृश्य सामाजिकता और मिथकीय चेतना के आलोक में देखते हैं, जिससे इस महान (मुझे मेरे प्रगतिशील दोस्त क्षमा करें, यह दार्शनिक समीक्षा नही है 🙂 ) चित्रकार के जीवन में प्रेम और कला के समेकित प्रभाव को समझ पाएं।

a7966f8aebc37481c1df60f911bad23bजब आप कला की बात करते हैं तो वह आपके मंतव्य को सबसे सुन्दर रूप में जनता तक ले जाने का माध्यम होती है। कला मानव की वह खोज है जिसने निरंतर अपने हर पुराने फार्म का अतिक्रमण किया है और नए रूपों में नए सलीके से फिर से मनुष्यों के मध्य लौटी है। रवि वर्मा ने चित्रकारिता को ही अपना माध्यम क्यों चुना यह बताते हुए रंजीत देसाई के रवि वर्मा  भी कला के एक नए रूप का अभिर्भाव कर रहे होते हैं। मंदिरों में पाषाण – शिल्प के सुन्दर, कलात्मक और भव्य रूप देखकर भी रवि वर्मा को उनमे एक कमी महसूस होती है। कमी यह की पत्थर से बनी प्रतिमाएँ मुद्रा तो दिखा रही हैं परन्तु भावनाएं नही। खजुराहो में श्रृंगार तो है कामना नही उत्तेजना नही. एक सजग मनुष्य के लिए चहरे पर उभरती रेखाएं और मांशपेशियों के गणित का प्रभाव आज से दो सौ साल पहले मायने रखता था यही बात उसे रवि वर्मा बनाती है।  मुझे अक्सर लगता है कि सभ्यता की अपनी गति होते हुए भी वह उसी मनुष्य को किसी परिधटना के लिए चुनती है जो उस वक़्त में सबसे श्रेष्ठ प्रतिभा का होता है , सबसे संवेदनशील होता है और साथ ही साथ निडर भी।  रवि  वर्मा में यह सब था।  एक अनुशासित युवा जिसने कला के लगभग हर रूप का विधिवत अध्ययन किया फिर वह नृत्य हो , संगीत हो , संस्कृत साहित्य हो या चित्रकला। वह युवक जो स्वपनदर्शी था, महत्वकांक्षी और आदर्शवादी भी। उसने महसूस किया कि मंदिरों की पाषाण मूर्तियों में नज़र को बांध लेने वाली भव्यता तो है पर मन को संवेदना से भर देने वाली बारीक़ी नही , मूर्तिओं में भय, करुणा , उपेक्षा , अपमान , कामना , प्रेम , वातसल्य , मान , विरह और दर्प का चित्रण नही है। जनता के जीवन की दशा उस वक़्त कला के लिए आलोचना की कसौटी नही थी , विषय पौराणिक ही हो सकते थे और हुए. यह भी कालचक्र की गति ही है।भावों के बारे में चित्रकार का मत कई जगह स्पष्ट है वह उर्वशी पुरुरवा के चित्र बनाते कठिनाई महसूस करता है क्योंकि उसे रात्रि के प्रणय क्षणों के चिन्ह और विरह का दुःख एक साथ चित्रित करना है। भावों की यह छटा रवि के चित्रों में  कई जगह दिखती है। जब वे शकुंतला के जन्म को चित्रित करते हैं तब विश्वामित्र के चहरे की उपेक्षा और मेनका के मुख पर दुःख के चिन्ह स्पष्ट है। सत्यवती और शांतनु के चित्र में सत्यवती के मुख का मान स्पष्ट है। द्रौपदी का भय अपमान स्पष्ट है।

Raja_Ravi_Varma_-_Mahabharata_-_Birth_of_Shakuntalaतो यह युवा चित्रकार जैसा की होता आया है सबसे पहले प्रेम से प्रभावित होता है। विवाह के बाद प्रथम रात्रि में काव्यों के दृश्यों की कल्पना करते रवि वर्मा के मन को ठेस पहुचंती है जब उसकी नवविवाहिता पारम्परिक पत्नी दीपक बुझा कर अभिसार के लिए प्रवृत होती है. यह अस्वीकरण साधारण है परन्तु साधारण नही भी है। परम्परा एक बाध्यता की तरह होती है वह मानव मन  विकास को भी अवरुद्ध भी करती है। रवि वर्मा की पत्नी चित्रकला को निकृष्ट कार्य समझती है एवं कला उसके लिए एक व्यर्थ वस्तु (अवधारणा )है।निराश रवि वर्मा अपने चित्र की प्रथम नायिका के रूप के घरेलू सहायिका को चुनते हैं और इससे “नायर स्त्री ” के प्रसिद्द चित्र के साथ उनकी चित्रकला की यात्रा का आरंभ होता है।

प्रेम निश्चय ही जैविक कारणों से, मनुष्य के अंदर संचारित होती सबसे सुन्दर और पुरातन भावना है। इसके सम्प्रेषण हेतु मानवीय प्रज्ञा अलग – अलग समय में अलग अलग माध्यमों का उपयोग करती रही है. मानव सभ्यता के विकास के साथ नित्य जटिलतम होती जाती मानवीय चेतना प्रेम और कला के मध्य निरंतर एक सामंजस्य सा ढूंढती रही है। अगर प्रेम सन्देश है तो दुनिया की हर कला उसका माध्यम भर है। महज एक मानवीय भाव होते हुए भी यह जगत की उत्पति और प्रकारांतर से विनाश के कारणों का मूल भी है। संसार में यूँ तो जीवधारियों के मध्य कई तरह के सम्बन्ध हो सकते हैं पर जैविकता से आबद्ध होने वाले दो ही सम्बन्ध होते हैं एक तो संतान का उसके  माता – पिता से दूसरा पुरुष का स्त्री से यौन सम्बन्ध जो पहले तरह के सम्बन्ध का कारन भी है।  यही प्रेम स्त्री के लिए परिवार संस्था के निर्माण के बाद बहुत जटिल रूप ले लेता है। रवि के समाज की स्त्री भी भय, कामना , दर्प और रुमान के भावों को एक साथ महसूस कर रही होती है। अहम के टकराने के परिणाम स्वरुप रवि वर्मा पत्नी का आवास छोड़कर अपने घर वापस लौट आते हैं। यहाँ यह बताया जाना आवश्यक है कि उनके समाज में मातृसत्तात्मक चलन है जिसमे पुरुष को विवाह के बाद पत्नी के आवास में रहना होता है।  अहम का यह संघर्ष तब तक जारी रहता है जब तक रवि की पत्नी की मृत्यु नही हो जाती।

Raja_Ravi_Varma_-_Mahabharata_-_NalaDamayantiरवि चित्रकला में ख्याति प्राप्त करने  के अपने उद्देश्यों की पूर्ती के लिए मुंबई आते हैं। यहाँ उनके जीवन में कथा – नायिका सुगंधा का प्रवेश होता है. सुगंधाबाई का चरित्र एक दुःसाहसी स्त्री का चरित्र है। प्रेम में पड़ी स्त्री का मूर्खता की हद तक दुःसाहसी होना एक कुंठाग्रस्त और पारम्परिक समाज में कोई आश्चर्जनक बात नही है।  वर्जनाओं से ग्रस्त रूढ़िवादी मन प्रेम में उपलब्ध निर्बाध उड़ान का आनंद लेना चाहता है और सुगंधा धीरे – धीरे रवि वर्मा के क़रीब आती चली जाती है। समाज जहाँ पुरुष को उसकी अपेक्षित साथिन चुनने के कुछ अवसर उपलब्ध कराता हैं वहीँ स्त्री को वस्तु की तरह किसी पुरुष से बांध दिया जाता है  तो सुगंधा जब रवि के प्रेम में पड़ती है तब यह कहना कहीं से अतिश्योक्ति नही कि यह स्त्री के मन का समाज की इस व्यवस्था से प्रतिशोध है।  प्रेम यहाँ केवल एक निष्कलुष सी भावना बनकर सामने नही आता इसके पीछे सदियों से प्रताड़ित हुई स्त्री की पीड़ा के अवसान की कोशिश है , भले ही कि यह प्रतीकात्मक हो ..क्षणिक हो।

यह प्रेम किसी की कामना का पात्र होने की अदम्य इच्छा भी है। खुद को पौराणिक आख्यानो के लिए चित्रकार के समक्ष निर्वसन करती सुगंधा में जहाँ प्रेमिका का रोमांच है वहीँ प्रकृतिजनित पूर्णता की अभिलाषा भी है। वहीँ रवि वर्मा यह चाहते हैं कि सुगंधा अपने भावों से मुक्त होकर चित्रित किये जाने वाले चरित्र के भावों का अंगीकार कर ले इसलिए वे सुगंधा को दो दिन सिर्फ नग्न अपने समक्ष अन्य साधारण कार्य करने को कहते हैं पर उसका चित्र बनाना नही आरम्भ करते।  तीसरे दिन सुगंधा क्रोध में रवि से पूछती है कि क्या यही सब काम करवाने के लिए मुझे निर्वसन तुम्हारे समक्ष आने का आदेश दिया था ? इसी क्षण चित्रकार को सुगंधा में नग्न उर्वशी का साहस और उन्मुक्तता दिखाई देती है और वह उसके चित्र बनाने को प्रवृत होता है। चित्रकार का तर्क है कि अब सुगंधा अपने “स्व ” से मुक्त है। यह तर्क भ्रामक है और सुगंधा अपने स्व के किंचित भी मुक्त नही है , सिर्फ उसके भाव कुछ समय के लिए परोक्ष हुए हैं.यह कैसे सम्भव था कि किसी को अपने भावों का आधार माने बिना एक स्त्री उसके समक्ष कामना , सुख , विरह आदि के भावों का प्रदर्शन कर पाती। एक अत्यंत साधारण भावुक स्त्री बिना प्रेम के किसी के समक्ष निर्वसन चित्रण के लिए तैयार हो पाती। चित्रकार असम्पृक्त है और असम्पृक्त स्त्री सम्पृक्ता में बदलती जाती है। फिर वही होता है जो अपेक्षित है , चित्रकार के उद्देश्य के साथ उसकी असम्पृक्तता भी खत्म हो जाती है और वह आकंठ प्रेम में डूबी सुगंधा की ओर  आकर्षित होता जाता है. वह कभी उसमे माता कभी प्रेयसी को देखता है। कलाकार के लिए भावों का निर्माण और उनमें परिवर्तन बहुत हद तक अभ्यास परक घटना है परन्तु नायिका के लिए यह न अभ्यास में है न सायास निर्मित किया गया है।

raja_ravivarma_painting_9_jatayu_vadhaजैसे प्रेम की नियति में उसकी तीव्रता है ..वैसे उसका मध्यम होना है ,जैसे घनिष्ठता है …वैसे सरल होना है ,जैसे आकर्षण हैं.. वैसे एक दिन विकर्षण तय है। जहाँ प्रेम में आकंठ डूबी सुगंधा अभिसार के बाद खुद को दर्पण में देखती समर्पिता होती जाती है , रवि के लिए यह सिर्फ मानव होने का सौंदर्य भर होता है। दूसरे दिन सुगंधा लौटती है और रवि वर्मा सामान बांधकर अपने घर केरल लौटने को तैयार हो रहे होते हैं। सुगंधा जो अधिकार से रवि को रोकने की स्थिति में है न सवाल पूछने का अधिकार रखती है रवि को बिना कुछ कहे जाने देती है।  रवि लौट कर आने का वायदा करके चले जाते हैं। प्रेम एक भ्रामक अवधारणा है , भ्रामक इसलिए कि यह परम्परा से अपनी जड़ें पाता है इसलिए संसार के हर दूसरे मनुष्य के लिए यह अलग होता है. सुगंधा के लिए भी प्रेम की अलग परिभाषा है और रवि के लिए अलग। उन्माद के क्षणों मे इन परिभाषाओं का आभास किसे होता है ? या ज्यादा सही तरीके से सवाल को रखें तो करना कौन चाहता है ?  भाव भी अंततः मनुष्य के अंतस के लिए भोजन की तरह हैं , खासकर तब जब वह किसी रचनात्मक कार्य से जुड़ा हो , यह चित्रकार के लिए शब्दसः सत्य था परन्तु सुगंधा के लिए प्रेम के अलावा जीवन का कोई अन्य उदेश्य नही था। बस यही बात उसमे धीरे – धीरे आत्महंता प्रवृति पैदा कर देती है।

4.-raja_ravivarma_painting_fresh_from_bath2वहीँ रवि के लौटने पर उनकी पत्नी उनका स्वागत ही करती है, रवि उसे  अपने साथ अपने पितृ आवास पर  जाकर रहने को  कहते हैं जिसे वह अपनी परम्पराओं के विरुद्ध बताकर अस्वीकार कर देती है।  यह देखने लायक विरोधाभाष है कि रवि यहाँ पत्नी को परम्पराओं को तोड़ने के लिए मनाने की कोशिश करते हैं परन्तु खुद वे समुद्र पार न करने की पुरातन भारतीय परम्परा को मानने की वजह से यूरोपीय देशों में जाकर चित्रकला की  नयी तकनीकों को सीखने से इंकार कर देते हैं।  सुगंधा के चित्रों में भावों के इन्द्रधनुष देखकर पुरू (रवि की पत्नी ) यह समझ जाती है कि उसके और रवि के क्या सम्बन्ध हैं। वह रवि से प्रश्न करती है। रवि का उत्तर रोचक है।  वे जवाब देते हैं कि कलाकार  कामना और प्रेम से ओतप्रोत होते हैं और बहुधा वह परवान चढ़ती ही है। सोचने वाली बात है कि यह जवाब क्या एक कलाकार का है ? या एक पुरुष का जो एक सुविधाभोगी स्थाई साथिन के आभाव में कामना के तर्क का , प्रेम की क्षणिकता का अपने बचाव के लिए सहारा ले रहा है ? जबकि वह सुगंधा से लौट कर आने का वायदा करके आया है फिर वह पत्नी को किस मंतव्य के तहत साथ ले जाना चाहता है? और अगर यह कामना का शुद्ध रूप था तब सुगंधा से प्रेम के प्रदर्शन का अभिप्राय क्या था ? अपनी कला को आकर देने हेतु किसी सुन्दर वस्तु का चित्रण अथवा  पुरुष की अदम्य जैविक इच्छा का प्राकृतिक निर्वहन ? इन सवालों के उत्तर हम यही छोड़ते हैं।

raja_ravivarma_painting_1_milkmaidरवि वर्मा की अदूरदर्शिता और लापरवाही से सुगंधा के चित्र सार्वजनिक हो जाते हैं। दूसरी ओर यथास्थिति वाद के समर्थक उनपर अश्लीलता और हिन्दू धर्म को क्षति पहुचने का आरोप लगाकर उनपर मुक़दमा कर देते हैं। हिंदूवादियों का तर्क होता है कि देवी देवताओं के नग्न चित्रण के कारन प्लेग की आपदा का उन्हें सामना करना पड़ रहा है, इसलिए यह चित्र प्रतिबंधित किये जाने चाहिए और रवि वर्मा को  सजा मिलनी चाहिए।  रवि सुगंधा के सामने विवाह प्रस्ताव रखते हैं जिसे सुगंधा सामाजिक वर्ग – चरित्र का तर्क देकर नामंजूर कर देती है। सुगंधा अपने अपमान को तो बर्दाश्त कर लेती है परन्तु  रवि के मुक़दमा  हार जाने के भय से ग्रसित होकर और उनके लगातार हो रहे अपमान से त्रस्त होकर फैसला आने के दिन पर आत्महत्या कर लेती है। रवि मुक़दमें विजयी होते हैं पर रवि सुगंधा की अनुपस्तिथि में पौराणिक – काल्पनिक चित्र बना पाने में असक्षम हो जाते हैं।  प्रेम कथा का दुखद अंत होता है।

अब जरा रवि वर्मा के चित्रों के आलोचनाओं पर बात कर लें। आलोचकों का आरोप है कि अगर रवि चित्र बनाकर देवताओं को मंदिरों से बाहर नही निकालते तो भारत में धर्म की जड़ें नही मजबूत होती, देवता साधारण भारतीय परिवारों के पूजा घरों तक नही पहुँचते ।  यह आरोप अनर्गल है।  समाज की अपनी गति होती है धर्म का निर्माण एवं उसका लोकप्रियकरण एक सामाजिक गति है। हर प्रकार की कला को पहला आश्रय राजा अथवा धर्माधिकारी से ही मिला है। हाँ एक चित्रकार की तरह रवि से हम यह अपेक्षा कर सकते थे कि वे अपनी कला में जनोन्मुख हो जाते अंतिम समय में उन्होंने प्रयास भी किया पर बहुत सफल नही रहे , शायद भावना भी वही सम्प्रेषण में आ पाती है जिसपर हम विश्वाश कर पाते हैं। यही रवि के साथ हुआ तथापि उनके अद्भुत कौशल और सौंदर्यबोध को अनदेखा करना आलोचना को जबरदस्ती एकपक्षीय बनाना ही है। इस कथा में रंजीत देसाई ने कितना सत्य लिखा है कितनी कल्पना का प्रयोग किया है, यह तो शायद हम कभी जान नही पाएंगे परन्तु यह तथ्य निर्विवाद है कि रवि वर्मा के चित्रों के रूप में उनकी कल्पना और कला की जो विरासत हमारे पास संरक्षित है वह उन्हें निश्चय ही उनके यूरोपीय समकालीन चित्रकारों के समक्ष स्थान देती है।

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लवली गोस्वामी

दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ शीघ्र प्रकाश्य. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.