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कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

सामान्य

कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

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आओ मेरे बच्चों कि ये रात बहुत भारी है
आओ मेरे बच्चों कि बेकार परदादारी है
मैं हार गया हूं अब ये साफ़ कह देना चाहता हूं
सीने से तुमको लिपटा कर सो जाना चाहता हूं

मेरी बेबसी, बेचारगी, ये मेरे डर हैं
कि हर हत्या का गुनाह मेरे सर है
मेरी आंखों में अटके आंसुओं को अब बह जाने दो
उफ़ तुम्हारी आंखों में बसे सपने, अब रह जाने दो
आओ कि आख़िरी सुक़ून भरी नींद में डूब जाएं
आओ कि इस ख़ूं-आलूदा जहां से बहुत दूर जाएं

काश कि यह हमारी आख़िरी रात हो जाए
काश कि यह हमारा आख़िरी साथ हो जाए

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमें
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

जहां कि नफ़रत ही जीने का तरीक़ा हो
जहां कि मारना ही जीने का सलीका हो
इंसानों के ख़ून से ही जहां क़ौमें सींची जाती हैं
लाशों पर जहां राष्ट्र की बुनियादें रखी जाती हैं

ये दुनिया को बाज़ार बनाने की कवायदें
इंसानियत को बेज़ार बनाने की रवायतें
ये हथियारों के ज़खीरे, ये वहशत के मंज़र
ये हैवानियत से भरे,  ये दहशत के मंज़र

जिन्हें यही चाहिए, उन्हें अपने-अपने ख़ुदा मुबारक हों
जिन्हें यही चाहिए. उन्हें ये रक्तरंजित गर्व मुबारक हों
जिन्हें ऐसी ही चाहिए दुनिया वे शौक से बना लें
अपने स्वर्ग, अपनी जन्नत वे ज़ौक़ से बना लें

इस दुनिया को बदल देने के सपने, अब जाने दो
मेरे बच्चों, मुझे सीने से लिपट कर सो जाने दो

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमे
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

०००००

रवि कुमार

बच्चे और फूल – कविता

सामान्य

बच्चे और फूल
( a poem by ravi kumar, rawatbhata )

बच्चे और फूल – पूर्वार्ध

बच्चों को फूल बहुत पसंद हैं
वे उन्हें छू लेना चाहते हैं
वे उनकी ख़ुशबू के आसपास तैरना चाहते हैं
उन्हें तितलियां भी बहुत पसंद हैं

बच्चों को उनके नाम-वाम में
कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती
वे तो चुपके से कुछ फूल तोड़ लेना चाहते हैं
और उन्हें अपने जादुई पिटारे में
समेटे गए और भी कई ताम-झाम के साथ
सुरक्षित रख लेना चाहते हैं
वे फूलों को सहेजना चाहते हैं

वे चाहते हैं
कि जब भी खोले अपना जादुई पिटारा
वही रंग-बिरंगा नाज़ुक अहसास
उन्हें अपनी उंगलियों के पोरों के
आसपास महसूस हो
वे इत्ती जोर से साँस खींचें
कि वही बेलौस ख़ुशबू
उनके रोम-रोम में समा जाए

वे शायद ऐसा भी सोच सकते हैं
कि यदि फूल होंगे उनके पास
तो आएंगी अपने-आप
उनके पास तितलियां

फूल और तितलियां
अक्सर उनकी चेतना में गड्डमड्ड हो जाते हैं

जब फूल उनकी नज़र में होते हैं
वे देख-सुन नहीं रहे होते हैं
चेतावनियां और नसीहतें
ना वे फँस पा रहे होते हैं
सभ्यता और संस्कारों के मकड़जाल में

दरअसल
जब फूल उनके दिमाग़ में होते हैं
तब उनके दिमाग़ में कुछ और नहीं होता

इधर-उधर
यूं ही दौड़ते-भागते
फूलों के आसपास मंडराते
बच्चे
सिर्फ़ बड़ों से नज़रे बचाना चाहते हैं
०००००

बच्चे और फूल – उत्तरार्ध

बच्चे उदास हैं
उनके जादुई पिटारे में सहेजे फूल
मुरझा गए हैं
नहीं शायद
वे सोच रहे हैं कि मर गए हैं

वे सदमें में हैं
कल्पनालोक घायल है
रंग खो गए हैं कहीं
ख़ुशबुएं संड़ांध मारने को हैं

सारी चेतावनियां और नसीहतें
उनकी आँखों में उतर आए पानी में
फूलों और तितलियों के साथ
बेतरतीबी से चिलक रही हैं

जादुई पिटारे की रहस्यमयी दुनियां
कुछ समय के लिए ख़ामोश हो गई है

बच्चे आख़िरकार बच्चे हैं
फूलों को फिर से देखते ही
कौंध उठती हैं उनकी आँखों में वही चमक
उनके कल्पनालोक में
उन्हें सहेजने के
नये-नये इंतज़ामात कुलबुलाने लगते हैं

वे फिर से
नज़रे बचाकर पहुंच जाना चाहते हैं
फूलों और तितलियों के पास

कुछ सिरफिरे कहते हैं
फूलों और ख़ुशबुओं को सहेजना
आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है
इस दुनियां को बचाए रखने के लिए।
०००००

रवि कुमार