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उम्मीद अभी बाकी है

सामान्य

उम्म्मीद अभी बाकी है
००००००००००००००००००००००

तपती हुई लंबी दोपहरों में
कुदालें खोदती हैं हथौड़ा दनदनाता है
गर्म लू के थपेड़ों को
पसीना अभी भी शीतल बनाता है

पेड़ों के पत्ते सरसराते हैं
उनके तले अभी छाया मचलती है
घर लौटती पगडंडियों पर
अभी भी हलचल फुदकती है

चूल्हों के धुंए की रंगत में
अभी भी शाम ढलती है
मचलते हैं अभी गीत होठों पर
कानों में शहनाई सी घुलती है

परिन्दों का कारवां अभी
अपने बसेरों तक पहुंचता है
आंगन में रातरानी का पौधा
अभी भी ख़ूब महकता है

दूर किसी बस्ती में
एक दिये की लौ थिरकती है
एक मायूसी भरी आंख में
जुगनु सी चमक चिलकती है

लंबी रात के बाद अभी भी
क्षितिज पर लालिमा खिलती है
धरती अभी भी अलसाई सी
आसमां के आगोश में करवट बदलती है

मां के आंचल से निकलकर
एक बच्चा खिलखिलाता है
अपने पिता की हंसी को पकड़ने
उसके पीछे दौड़ता है
एक कुत्ता भौंकता है
एक तितली पंख टटोलती है
एक मुस्कुराहट लब खोलती है

अभी भी आवाज़ लरजती है
अभी भी दिल घड़कता है
आंखों की कोर पर
अभी भी एक आंसू ठहरता है

माना चौतरफ़
नाउम्मीदियां ही हावी हैं
पर फिर भी मेरे यार
उम्म्मीद अभी बाकी है

चीखों में लाचारगी नहीं
जूझती तड़प अभी बाकी है
मुद्राओं में समर्पण नहीं
लड़ पाने की जुंबिश अभी बाकी है

उम्म्मीद अभी बाकी है

०००००
रवि कुमार

शैतानी रूहें भी कांपती है – कविता – रवि कुमार

सामान्य

शैतानी रूहें भी कांपती है

वे समझते थे
हमारी समझ में, हमारे ख़ून में
वे छाये हुए हैं चौतरफ़

वे समझते थे
वे हमें समेट चुके हैं अपने-आप में
कि हम अपनी-अपनी चौहद्दियों में
कै़द हैं और मस्त हैं

वे समझते थे कि हर जानिब उनका ज़ोर है
वे समझते थे कि हर स्मृति में उनका ख़ौफ़ है

वे हैं सरमाया हर शै का
वे हैं जवाब हर सवाल का

वे समझते थे कि हमारी ज़िंदगी
उनके रंगों में ही भरपूर है
कि हमारे शरीर गुलाम रहने को मजबूर हैं
कि हमारी रूहें उनके मायाजाल में उलझी हैं
कि मुक्ति के हर वितान अब नासमझी है

गो बात अब बिगड़-बिगड़ जाती है
कि सुनते हैं
शैतानी रूहें भी कांपती है

और हैलीकॉप्टर गोलियां बरसाने लगते हैं
और बम-वर्षक विमान उड़ान भरने लगते हैं
और आत्माओं को भी टैंकर रौंदने लगते हैं

यह विरोध के भूमंडलीकरण का दौर है
वे इसे ख़ौफ़ के भूमंडलीकरण में
तब्दील कर देना चाहते हैं

वे समझते हैं
कि हमें कुचला जा सकता है कीड़ो-मकौड़ो की तरह

हा – हा – हा – हा
अपनी हिटलरी मूंछौं के बीच से
चार्ली चैप्लिन
हंस उठते हैं बेसाख़्ता

०००००

रवि कुमार

दुनिया भर के प्रेम के लिए – लवली गोस्वामी की कविताएं

सामान्य

दुनिया भर के प्रेम के लिए
लवली गोस्वामी की कविताएं


10982066_10205980191812776_7742250801963854610_nइस बार प्रस्तुत हैं लवली गोस्वामी की कुछ कविताएं। दर्शन, मनोविज्ञान एवं मिथकों पर वे गंभीर लेखन करती रही हैं और अब सामने आई उनकी कविताएं भी चर्चा में हैं। उनके सामाजिक सरोकार और ज़मीनी सक्रियता के हासिल, उनकी कविताओं में और अधिक मुखर हो उठते हैं, स्पष्टता से अभिव्यक्त होते हैं। इन दिनों उनकी प्रेम और मिथकों पर भी कुछ कविताएं पढ़ने में आईं जिनमें वर्तमान संदर्भों में इन्हें एक अलहदा नज़रिये से देखा गया है। वे फिर कभी यहां प्रस्तुत की जाएंगी, फिलहाल इन तीन कविताओं से गुजर लिया जाए।


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कायांतरण

याद करती हूँ तुम्हें
जब उदासीनता के दौर धूल के बग़ूलों की तरह गुजरतें हैं
स्मृतियों की किरचें नंगे पैरों में नश्तर सी चुभती हैं
याद करती हूँ और उपसंहार के सभी अनुष्ठान झुठलाता
प्रेम गुजरता है आत्मा से भूकम्प की तरह

अब भी सियासत गर्म तवे सी है
जिसमे नाचती है साम्प्रदायिकता और नफरत की बूँदे
फिर वे बदलती जातीं हैं अफवाहों के धुएं में
दंगों के कोलाहल में

अब भी नाकारा कहे जाने वाले लोगों की जायज – नाजायज औलादें
कुपोषण से फूले पेट लेकर शहरों के मलबे में बसेरा करती हैं
होठों पर आलता पोतती वेश्याएं अभी भी
रोग से बजबजाती देह का कौड़ियों के मोल सौदा करती है
मैं वहां कमनीयता नही देखती
मैं वहां वितृष्णा से भी नही देखती
उनसे उधार लेती हूँ सहने की ताक़त

दुःख की टीस बाँट दी मैंने
प्रेमियों संग भागी उन लड़कियों में
जिन्हे जंगलों से लाकर प्रेमियों ने
मोबाइल के नए मॉडल के लिए शहर में बेंच दिया
उन किशोरियों में जिनके प्रेम के दृश्य
इंटरनेट में पोर्न के नाम पर पाये गए

तिरिस्कार का ताप बाँट दिया उनमे
जो बलात्कृत हुईं अपने पिताओं – दाताओं से
जिनकी योनि में शीशे सभ्यता की रक्षा के नाम पर डलवाये गए

तुम्हे याद करती हूँ कि
दे सकूँ अपनी आँखों का जल थोड़ा – थोड़ा
पानी मर चुकी सब आँखों में

हमारी राहतों के गीत अब
लगभग कोरी थालियों की तृप्ति में गूंजते हैं
देह का लावण्य भर जाता है सभ्यता के सम्मिलित रुदन में
कामना निशंक युवतियों की खिलखिलाहट का रूप ले लेती है

अक्सर याद करती हूँ तुम्हे
सभ्यताओं से चले आ रहे
जिन्दा रह जाने भर के युद्ध के लिए
दुनिया भर के प्रेम के लिए
उजली सुबह के साझा सपने के लिए
फिर मर जाने तक जिन्दा रहने के लिए।
०००००

प्रेम के बिंब

यह चाँद के लिए चकोर होने सा नहीं है
प्रेम समय के लिए गोधूलि की बेला है
अँधेरे – उजाले का संधिकाल है
जहाँ न सूरज है न चाँद है
वह समय जब सांध्य तारा अपना अस्तित्व तलाशता है

प्रेम है चीनी कथाओं का वह फल जिससे मन्दाकिनी निकली
जो बहा ले गई आकाश के सबसे अधिक चमकीले दो तारों के मध्य आकाश गंगा
अब एक दिन मुअय्यन है उनके मिलन को पूरे साल में
और मिलन का वह दिन लोगों के लिए उत्सव है

प्रेम का होना वसंत की मीठी बयार नहीं है
यह पतझड़ के पत्तों का रूखापन भी नहीं है
यह बरसात की खदबदाती टपकती हंसी नहीं है
तो शीत की कंपकपाती उजली रात भी नहीं है

यह ऋतुओं का संधिकाल है
वह समय जब लगता है
सुख – दुःख ग्लानि – क्लेश मान – अवमानना का सबसे तीव्र संक्रमण
जब सबसे तुनकमिज़ाज होते हैं सब ख्याल
अपनी ही तासीर अजनबी लगती है
और सबसे प्रिय भोजन भी अरुचि पैदा करता है
जब सब अगले मौसम के फूल फूटने वाले होते

और हवाओं में आने वाले मौसम की आहट होती है
यह न नया होता है न पुराना होता है
घर की औरत के लिए औसारे की तरह
जो न उसका अपना होता है
न बेगाना होता है

प्रेम का होना फूल खिलने सा नहीं है
यह पत्ते झड़ने सा भी नहीं है
अगर यह पूर्णतः पल्ववित पेड़ नहीं
तो बीज से अलग अस्तित्व तलाशता अंकुर भी नहीं
यह आंधी से लड़ता किशोरवय पौधा है
जिसमें लचक है
और टूट जाने का भय भी
जिसमें सामर्थ्य है
और फिर से सँभल जाने का आशय भी

प्रेम तुम्हारी चंचल आँखों की ताब नहीं है
यह मेरी नज़र का मान भी नहीं है
यह कामनाओं के उपवन में उगी अवांछित पौध नहीं
तो ज़रुरत से सींच कर उगाया गया अलंकरण भी नहीं
यह चाय बागान में लगाया गया सिल्वर ओक है
वह विश्राम स्थल जो हमारी निरीहता के पलों में
खुद टूट कर हमारी आत्मा को निराशा की तेज़ धूप
और हक़ीक़तों की उत्ताल हवा से बचाता है

०००००

स्वीकृतियाँ

मैं हमेशा अपने भाव छिपाती रही खुद से
भावनाओं का आना कविताओं का आना था
मुझे भय लगता रहा मन में कविता के आने से
कटुता और रुक्षता के रीत जाने से
तितलियों के रंगों से अधिक उनकी निरीहता से
फूलों की महक से अधिक उनकी कोमलता से
बारिश की धमक से अधिक ख़ुद भींग जाने से

शक्तिशाली होने का अर्थ उन्माद के क्षणों में एकाकी होना है
विस्तृत होने का अर्थ आघात के लिए सर्वसुलभ होना है
सबसे गहरी अँधेरी खाईयों की तरफ बारिश का पानी प्रचंड वेग से बहता है
ऊँचे और विस्तृत पहाड़ सबसे अधिक भूस्खलन के शिकार होते हैं
बड़े तारे सबसे शक्तिशाली ब्लेक हॉल में बदलते हैं
ठूँठ कठोरता और पौधे लचक के कारण बचे रहते हैं
फलों से लदे विशाल हरे पेड़ आंधी में सबसे पहले टूटते हैं

महानता के रंग -रोगन नही चाहिए थे मुझे
पर इंकार के सब मौके मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए
घोषणापत्रों पर मुझे आह्वान के नारों की तरह उकेर दिया गया
कोई व्यंग्य से हँसा मैं कालिदास हुई
किसी ने अपमानित किया मैं शर्मिष्ठा हुई
किसी ने नफ़रत की मैं ईसा हो गई
जब-जब किसी ने अनुशंसा की
मैं सिर्फ सन्देश रह गई
मैं सिर्फ शब्द बनी रही
सबने अपने-अपने अर्थ लिए
मैं सापेक्ष बनी रही
सब मुझे अपने विपक्ष में समझते रहे

जब भी मौसम ने दस्तक दी मैंने चक्रवात चुने
जब गर्मियाँ आई मुझे दोपहर की चिलचिलाती धूप भली लगी
जब सर्दियाँ आई माघ की ठंढ
(यूँ ही नही कहते हमारे गांव में माघ के जाड़ बाघ नियर)
सामर्थ्य नही था मुझमे पर विवशता में हिरण भी आक्रामक होता है
मुझे उदाहरण भी नही बनना था पर मिसालों के आभाव ने समाज की बुद्धि कुंद कर दी
और मुझे योग्यता के विज्ञापन में बदल दिया गया

सिर्फ इसलिए किसी को गैरजरुरी सी शुरुआत में बदल जाना था
महानताओं ने धीरे से क्षमा कर दी उसकी गलतियाँ
पलायन एक सुविधापूर्ण चयन होता है
चुनौतीपूर्ण चयन अहम का आहार होता है

जिसकी बलि चढ़ा दी जाये वह समर्थ नही कहलाता
वरना समाज अभिमन्यु की जगह अरावन की प्रशस्ति गाता

०००००

लवली गोस्वामी


दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.


 

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है – कविता – रवि कुमार

सामान्य

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है

लोग लड रहे हैं

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है
गा रही थी एक बया
घौंसला बुनते हुए

कुछ चींटियां फुसफुसा रही थीं आपस में
कि जितने लोग होते है
गोलियां अक्सर उतनी नहीं हुआ करतीं

जब-जब ठानी है हवाओं ने
गगनचुंबी क़िले ज़मींदोज़ होते रहे हैं
एक बुजुर्ग की झुर्रियों में
यह तहरीर आसानी से पढ़ी जा सकती है

लड़ कर ही आदमी यहां तक पहुंचा है
लड़ कर ही आगे जाया जा सकता है
यह अब कोई छुपाया जा सकने वाला राज़ नहीं रहा

लोग लड़ेंगे
लड़ेंगे और सीखेंगे
लड़कर ही यह सीखा जा सकता है
कि सिर्फ़ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर

लोग लड़ेंगे
और ख़ुद से सीखेंगे
झुर्रियों में तहरीर की हुई हर बात

जैसे कि
जहरीली घास को
समूल नष्ट करने के अलावा
कोई और विकल्प नहीं होता

०००००
( तहरीर – लिखावट, लिखना, लिखाई )

रवि कुमार

कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

सामान्य

कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

०००००००००००००००००

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आओ मेरे बच्चों कि ये रात बहुत भारी है
आओ मेरे बच्चों कि बेकार परदादारी है
मैं हार गया हूं अब ये साफ़ कह देना चाहता हूं
सीने से तुमको लिपटा कर सो जाना चाहता हूं

मेरी बेबसी, बेचारगी, ये मेरे डर हैं
कि हर हत्या का गुनाह मेरे सर है
मेरी आंखों में अटके आंसुओं को अब बह जाने दो
उफ़ तुम्हारी आंखों में बसे सपने, अब रह जाने दो
आओ कि आख़िरी सुक़ून भरी नींद में डूब जाएं
आओ कि इस ख़ूं-आलूदा जहां से बहुत दूर जाएं

काश कि यह हमारी आख़िरी रात हो जाए
काश कि यह हमारा आख़िरी साथ हो जाए

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमें
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

जहां कि नफ़रत ही जीने का तरीक़ा हो
जहां कि मारना ही जीने का सलीका हो
इंसानों के ख़ून से ही जहां क़ौमें सींची जाती हैं
लाशों पर जहां राष्ट्र की बुनियादें रखी जाती हैं

ये दुनिया को बाज़ार बनाने की कवायदें
इंसानियत को बेज़ार बनाने की रवायतें
ये हथियारों के ज़खीरे, ये वहशत के मंज़र
ये हैवानियत से भरे,  ये दहशत के मंज़र

जिन्हें यही चाहिए, उन्हें अपने-अपने ख़ुदा मुबारक हों
जिन्हें यही चाहिए. उन्हें ये रक्तरंजित गर्व मुबारक हों
जिन्हें ऐसी ही चाहिए दुनिया वे शौक से बना लें
अपने स्वर्ग, अपनी जन्नत वे ज़ौक़ से बना लें

इस दुनिया को बदल देने के सपने, अब जाने दो
मेरे बच्चों, मुझे सीने से लिपट कर सो जाने दो

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमे
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

०००००

रवि कुमार

सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प – शिवराम

सामान्य

सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प

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मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाठ से, बार-बार बलिहार॥
नाव में नदिया डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाए
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरौखा बैठिके, दांयी मारी आंख।
कबहुं दिखावे नैन तो, कबहुं खुजावे कांख॥
नयन से नयन लड़ावै
प्रम बढ़तौ ही जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
‘सेज’ में मनुवा डूबौ जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया।
ये जग झूठा, ये जग सांचा, ये जग ब्रह्म की माया॥
माया ब्रह्म अंग लगे
ब्रह्म माया में रमे
ब्रह्म की माया बरनी न जाय
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़-अड़ के वाणी हुई, अडियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर॥
चित्त की बात निराली
तुरुप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

००००००

शिवराम

मैं पुरुष खल कामी

सामान्य

मैं पुरुष खल कामी

००००००

चित्र - रवि कुमार, रावतभाटा

मैं पुरुष हूं
एक लोहे का सरिया है
सुदर्शन चक्र सा यह
बार-बार लौट आता है, इतराता है

यह भी मैं ही हूं
आदि-अनादि से, हजारों सालों से
मैं ही हूं जो रहा परे सभी सवालों से

मैं सदा से हूं
मैं अदा से हूं

मैं ही दुहते हुए गाय के स्तनों को
रच रहा था अविकल ऋचाएं
मैं ही स्खलित होते हुए उत्ताप में
रच रहा था पुराण गाथाएं

मैं ही रखने को अपनी सत्ता अक्षुण्ण
गढ़ रहा था अनुशासन स्मृतियां
मैं ही स्वर्गलोक के आरोहण को
गढ़ रहा था महाकाव्य-कृतियां

मैं ही था हर जगह
शासन की परिभाषाओं में
शोर्य की गाथाओं में
मैं ही था स्वर्ग के सिंहासन पर
अश्वमेधी यज्ञों पर
चतुर्दिक लहराते दंड़ों पर

मैं ही निष्कासनों का कर्ता था
मैं ही आश्रमों-आवासों में शील-हर्ता था
मैंनें ही रास रचाए थे
मैंने ही काम-शास्त्रों में पात्र निभाए थे

मै ही क्षीर-सागर में पैर दबवाता हूं
मैं अपनी लंबी आयु के लिए व्रत करवाता हूं
मैं ही उन अंधेरी गंद वीथियों में हूं
मैं ही इन इज्ज़त की बंद रीतियों में हूं

मैं ही परंपराएं चलाती खापों में हूं
गर्दन पर रखी खटिया की टांगों में हूं
ये मेरे ही पैर हैं जिसमें जूती है
ये मेरी ही मूंछे है जो कपाल को छूती हैं

ये मेरा ही शग़ल है, वीरता है
ये मेरा ही दंभ है जो सलवारों को चीरता है
कि नरक के द्वार को
मैं बंद कर सकता हूं तालों से
मैं पत्थरों से इसे पाट सकता हूं
मैं इसे नाना तरीक़ों से कील सकता हूं

मैं ब्रह्म हूं, मैं नर हूं
मैं अजर-अगोचर हूं
मेरी आंखों में
हरदम एक भूखी तपिश है
मेरी उंगलियों में
हरदम एक बेचैन लरजिश है

मेरी जांघों में
एक लपलपाता दरिया है
मेरे हाथों में
एक दंड है, एक सरिया है

मैं सदा से इसी सनातन खराश में हूं
मैं फिर-फिर से मौकों की तलाश में हूं…

०००००

रवि कुमार

जिन्हें वक़्त पढ़ने में लगा है – कविताएं – रवि कुमार

सामान्य

चेंपों पर दो कविताएं

चेंपा

वे जब आएंगे
तो ऐसे ही आएंगे

वे जब छाएंगे
तो ऐसे ही छाएंगे

वे जब-जब आए हैं
ऐसे ही आए हैं

वे जब-जब छाए हैं
ऐसे ही छाए हैं

वे गांवों से निकलते हैं
वे खेत-खलिहानों से निकलते हैं
वे लहलहाती फसलों से निकलते हैं

वे ज़मीं की पैदाईश हैं
वे आसमां की ख़्वाहिश हैं

वे गली-गली छा जाएंगे

०००००
चेंपा – सरसों की कटाई के बाद आसपास फैल जाने वाले छोटे कीट

चेंपों की तहरीर
जब लग रहा था
कि महलों में बसंत शबाब पर है

सरसों के खेतों-खलिहानों से बाहर निकल कर
तभी चौतरफ़ छा गये चेंपे

लाख इंतज़ाम कर लिए
राजा जी की आंखों को
आख़िर लाल कर गये चेंपे

वे तहरीर कर गये हैं
हर शै पर नई इबारतें

जिन्हें वक़्त पढ़ने में लगा है

०००००
चेंपा – सरसों की कटाई के बाद आसपास फैल जाने वाले छोटे कीट
तहरीर – लिखावट, लिखना, लिखाई

रवि कुमार

( “बनास जन” के नये अंक में ( फरवरी-अप्रेल, 2012 ) में कुछ कविताएं आई हैं. उनमें ये दोनों कविताएं भी शामिल हैं. )

वह फिर से हवा सा फुर्रsss हो रहा है

सामान्य

फ़लक भी ख़ौफ़ज़दा है उससे
( a poem by ravi kumar, rawatabhata )

एक बच्चा
किवाड़ की दराज़ से बाहर झांका
और गुलेल हाथ में लिए
हवा सा फुर्र हो गया
पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी की तरफ़

बस्ती की जर्जर चौखटों में
ख़ौफ़ तारी हो गया

कोई दहलीज़ नहीं लांघता
पर यह सभी जानते हैं
वह अपनी अंटी में सहेजे हुए
छोटे छोटे कंकरों से
सितारों को गिराया करता है

चट्टानों को बिखराकर लौटती
उसकी मासूम किलकारियां
मुनांदी की मुआफ़िक़
हर ज़ेहन में गूंज उठती हैं

ज़मीं तो ज़मीं
फ़लक भी ख़ौफ़ज़दा है उससे
वह आफ़्ताब को
गिरा ही लेगा बिलआख़िर

वह फिर से
हवा सा फुर्रsss हो रहा है

०००००

रवि कुमार

फ़लक : आसमान, आफ़्ताब : सूर्य, बिलआख़िर : अंततः

( यह कविता, ब्लॉग की शुरूआत में ही पहले भी यहां प्रस्तुत की जा चुकी है )

कविता के बारे में – अंतिम भाग

सामान्य

कविता के बारे में – अंतिम भाग
शिवराम

( शिवराम द्वारा कविता पर यह महत्तवपूर्ण आलेख कुछ समय पूर्व ही लिखा गया था. १ अक्टूबर को उनके निधन पश्चात अभी हाल ही में यह ‘अलाव’ के नवंबर-दिसंबर’२०१० अंक में प्रकाशित हुआ है. यह आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां छः भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है अंतिम भाग. )

देखिए : कविता के बारे मेंपहला भाग, दूसरा भाग, तीसरा भाग, चौथा भाग, पांचवा भाग

चेतना और स्वभाव, ज्ञान और संस्कार के आधार पर लोग भिन्न-भिन्न सामाजिक और सौन्दर्य बोध की विविध स्तरीय स्थितियों में विद्यमान हैं। कवि भी, पाठक और श्रोता भी। जाहिर है हर कविता हरएक के लिए सम्प्रेष्य और असरदार और रोचक नहीं हो सकती। कवि कविता के माध्यम से जिनके समक्ष अभिव्यक्त होना चाहता है, वे रचना प्रक्रिया के दौरान चेतन-अचेतन मन में उसकी अभिव्यक्ति के दूसरे सिरे पर होते हैं। यह बात उस कविता के पाठकों की श्रेणी तय करती है। यदि हम वृहद् पाठक संसार तक अपनी कविता को पहुंचाना चाहते हैं तो हमारी कविता के दूसरे सिरे पर हमें इस वृहद् पाठक संसार को रखना होगा। अतिप्रबुद्धजनों या सुधीजनों से हम सम्बोधित हैं तो जाहिर है वह रचना आमतौर पर उन्हीं के लिए होगी।

यह तथ्य कविता के रूपविधान के, उसकी काव्यभाषा के, उसके शिल्प और शैली के निर्धारण में बड़ी भूमिका अदा करता है। यहां तक कि अपने मनोजनगत में से अंतर्वस्तु के चयन में भी बड़ी भूमिका अदा करता है। कवि हर जीवनानुभव और उससे उपजी हर अंतर्वस्तु को, खासकर आत्मसंघर्ष से प्रस्फुटित अंतर्वस्तु को, हर किसी को सम्बोधित करने के लिए उपयुक्त नहीं पाता और ऐसी अंतर्वस्तु सीमित पाठकों से सम्बोधित होने की प्रक्रिया में, अथवा सम्बोधन रहित आत्माभिव्यक्ति की प्रक्रिया में, ऐसा संश्लिष्ट रूप भी ग्रहण कर सकती है जो वृहद पाठक समूह के लिए सहज सम्प्रेष्य नहीं हो। ऐसी कविता को भी खारिज करना ठीक नहीं। लेकिन ऐसी कविता को उत्कृष्ट मानकर और उसे मानक बनाकर प्रस्तुत करना भी ठीक नहीं।

कविता, समय की सामाजिक जरूरत के अनुरूप अपनी दिशा और अपना स्वरूप ग्रहण करती है। कविता जीवन और समाज से निरपेक्ष नहीं होती, वह उसमें हस्तक्षेप करती है और अपने वैयक्तिक अभिव्यक्ति के दबावों के साथ सामाजिक दायित्वों की आवश्यकता के अनुसार भी ढलती है। ब्रिटिश हुकूमत के काल में कविता किस तरह लोक जागरण का माध्यम बनी, भक्तिकाल में कविता किस तरह लोक जागरण का माध्यम बनी यहां उसकी सूचना और व्याख्या की जरूरत नहीं है।

हमारे वर्तमान समय में भी वैश्विक मानव समाज और उसके अंतर्गत भारतीय मानव समाज जिस प्रकार के संकट में फंस गया है और अमानवीयकरण की दिशा में दौड़ रहा है वह भयावह है। पूंजीवादी साम्राज्यवाद पतनशीलता की चरम अवस्था में पहुंच गया है, भारत जैसे बहुत से देशों में सामंती मूल्य और संस्कारों की जड़ता ने इसे और गहरा दिया है। मनुष्य प्रजाति और सम्पूर्ण पृथ्वी के ही विनाश की चिन्ता गहराने लगी है। यही वे स्थितियां है जिनमें हम आम तौर पर मनुष्य और समाज तथा उसकी विभिन्न सत्ताओं की संवेदनहीनता की शिकायत करते पाए जाते हैं। कवियों को भी वर्तमान मनुष्य विरोधी यथास्थिति से मुक्ति और वैकल्पिक समाज व्यवस्था के बारे में सोचना और तय करना चाहिए। लक्ष्य निर्धारित होगा तो उसकी दिशा भी निर्धारित होगी।

कविता में संवेदना की तलाश की बातें होने लगी हैं। संवेदना की सबसे घनीभूत संरचना में भी यदि संवेदना की तलाश करनी पड़े तो इस समय की विकराल भयावहता के बारे में क्या कान पकड़कर बताने की जरूरत है। जिस व्यवस्था में मानव प्रजाति का तीन चैथाई से अधिक, तबाह हाल स्थितियों में जीने को विवश हों और शेष एक चैथाई लोग सुख-सुविधाओं के पहाड़ पर बैठे अमानवीय भोगवाद में लिप्त हों वे भी कोई उन्नत सांस्कृतिक जीवन नहीं जी रहे हों, उस व्यवस्था के विरोध में जन जागरण अभियान आज भी वैसी ही जरूरत बन गया है जैसे हमारे यहां भक्तिकाल या नव जागरण काल में बना था।

जाहिर है जन जागरण अभियान का एजेन्डा ऐसी कविता की मांग करता है जो व्यापक जन-गण को जागृत करे, सक्रिय करे, आन्दोलित करे। इसीलिए हमारे बहुत से विद्वान कवि और समीक्षक कविता के लोकान्मुखी और लोक प्रतिबद्ध होने की बात करते हैं। सामंती युग का लोक अलग था आज का लोक अलग है। मुक्ति का इस समय का मार्ग भी अलग है।

इस समय में विद्यमान जनविरोधी व्यवस्था से मुक्ति का मार्ग श्रमजीवी जनगण की जागृति से होकर गुजरता है। हमारे कवियों और कविता को इस दायित्व को स्वीकार करना चाहिए। इस दायित्वबोध के साथ कविताएं रची भी जा रही हैं, जरूरत है इसे केन्द्रीय धारा बनाने की और तमाम प्रकार के अवसरवाद तथा सुविधापरस्ती से मुक्त होने की। कविता फिर हाशिए पर नहीं जीवन के केन्द्र में होगी।

( समाप्त )

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आलेख – कविता के बारे में – शिवराम

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kavita ke bare mein – shivaram.pdf

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आलेख – शिवराम
प्रस्तुति – रवि कुमार