Category Archives: शिवराम : स्मृति-शेष

हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां

सामान्य

शिवराम स्मृति समारोह
“हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां” पर परिचर्चा
“हमारे पुरोधा : शिवराम” का लोकार्पण


कोटा, २ अक्टूबर. २०१४

शिवरामसुप्रसिद्ध रंगकर्मी एवं साहित्यकार शिवराम के चतुर्थ स्मृति-दिवस पर विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा गत १ अक्टूबर, २०१४ को एम. डी. मिशन कॉलेज के सभागार में एक समारोह का आयोजन किया गया। “हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां” विषय पर एक सार्थक परिचर्चा और राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एवं महेन्द्र नेह द्वारा लिखित पुस्तक “हमारे पुरोधा : शिवराम” का लोकार्पण इस समारोह के मुख्य आकर्षण रहे। इस अवसर पर रवि कुमार द्वारा शिवराम की रचनाओं पर केंद्रित एक कविता पोस्टर श्रृंखला का प्रदर्शन भी किया गया।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो० मोहन श्रोत्रिय ने परिचर्चा का समाहार करते हुए कहा कि हमारा देश-समाज इस समय गहरे सांस्कृतिक संकट से गुजर रहा है। संस्कृति और धर्म का घालमेल किया जा रहा है, धर्म को संस्कृति की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। जबकि संस्कृति कहीं अधिक व्यापक संकल्पना है जिसका कि धर्म एक संकीर्ण अवयव मात्र है। हमारी विविधता से भरी समावेशी संस्कृति निशाने पर है और इस पर कट्टरवादी सामंती धार्मिक प्रभुत्व का संकट हमारे समय की सबसे बड़ी सांस्कृतिक चुनौती है। इस संकट के लिए मात्र कुछ संगठनों और मीडिया को कोसने से काम नहीं चलेगा, बल्कि संकट की जड़ो को तलाशना होगा। उन्होंने विस्तार से अपनी बात रखते हुए कहा कि वर्तमान बाज़ारवादी संस्कृति के साथ धार्मिक उन्माद पैदा करने वाली पतित संस्कृति का ताना-बाना बुनकर देशवासियों को विकास के दुस्वप्न दिखाये जा रहे हैं। इसके पीछे देश के शासक-वर्ग हैं, जो साम्राज्यवादी आर्थिक-राजनैतिक ताकतों के साथ दुरभि संधि करके देश के संसाधनों की अंधी लूट के लिए सांस्कृतिक विभ्रमों की सृष्टि कर रहे हैं। हमें फासीवाद की आहटों को सुनना, पहचानना सीखना-सिखाना होगा और उनके खिलाफ़ एक व्यापक राजनैतिक और संस्कृतिकर्म की लामबंदी करनी होगी। कलाकर्म को व्यक्तिगतता के दायरे से बाहर निकालना होगा, क्योंकि हर व्यक्तिगत कर्म अंततः राजनैतिक होता ही है, पर्सनल इज़ पॉलिटिकल। कला जगत को वर्तमान राजनीति के प्रतिकार की राजनीति में उतरना होगा, यही हम कला और संस्कृतिकर्मियों के लिए हमारे समय की चुनौतियों के खिलाफ़ एक सक्रिय और सचेत प्रतिरोध की राह हो सकती है।

वरिष्ठ शायर और विकल्प के अध्यक्ष अखिलेश अंजुम के स्वागत वक्तव्य के बाद परिचर्चा की शुरुआत करते हुए रंगकर्मी संदीप राय ने कहा कि शिवराम ने वर्तमान शोषक-शासक व्यवस्था के जन-विरोधी चरित्र को बेनकाब करने तथा उसके विरुद्ध प्रतिरोध जगाने के लिए सर्वाधिक प्रभावी माध्यम के रूप में नुक्कड़ नाटक को चुना। उनके नाटकों में आज के समय के संकटों की स्पष्ट अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उन्होंने सत्तापोषित मीडिया के मुक़ाबले जन-मीडिया की आवश्यकता पर जोर दिया। साथी नारायण शर्मा ने कहा कि हमें वैचारिक प्रखरता एवं श्रमिकों-किसानों के बीच संस्कृति कर्म द्वारा नव जागरण की धार को विकसित करना होगा। व्यंग्यकार डॉ. अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि साहित्य और संस्कृति के लिए स्थापित जनसंचार माध्यमों में जगह लगातार कम हो रही है और वर्तमान समय की सांस्कृतिक चुनौतियों के पीछे नई तकनीक और हाई फाई ब्रेन योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश के युवाओं को प्रगतिशील और जनपक्षधर संस्कृति के मूल्यों से परिचित कराना समय की मांग है।

साथी बी.एम. शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि शिवराम ने अपने विचारों तथा संस्कृतिकर्म से एक वैकल्पिक रास्ता दिखाया था और हमें इसे और आगे बढ़ाना चाहिये। महेन्द्र नेह ने कहा कि शासक-वर्ग की की संस्कृति मरणशील संस्कृति है, साम्राज्यवाद का आर्थिक-जहाज डूब रहा है। पूंजी और सत्ता का फासीवादी गठजोड़ इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि आर्थिक संकट अब लाइलाज होता जा रहा है। हमें मीडिया के दुष्प्रचार से हताश न होकर जन-गण के बीच शासक-वर्ग के झूठ-फरेब के विरुद्ध न्याय व सचाई की अलख जगानी चाहिये। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मशहूर शायर शकूर अनवर ने शिवराम के संस्कृतिकर्म को धर्म जाति, संप्रदाय की सीमाओं को तोड़कर एक न्यायपरक व समतामूलक समाज के सपने जगानेवाला प्रेरणादायक संस्कृतिकर्म बताया।

hamare purodha‘हमारे पुरोधा : शिवराम’ पुस्तक पर अपने विचार रखते हुए कवि-समीक्षक हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने अपने नाटकों के जरिये जनता की सोई हुई चेतना को जगाने का काम किया और उनकी कविताओं में भी लोक नाट्य और जन चेतना की प्रखर कलात्मकता है जो जीवन के यथार्थ से उपजी है। डा. प्रेम जैन ने पुस्तक-परिचय के रूप में अपनी लिखित टिप्पणी में कहा कि महेन्द्र नेह ने इस पुस्तक के ज़रिये शिवराम के जीवन, कविताओं, नाटकों व गद्य से न केवल हमें परिचित कराया है, अपितु उनके लेखन में गुंथी हुई युगपरिवर्तनकामी ऊर्जा को भी पाठकों तक पहुंचाने का कार्य किया है। डॉ. ओम नागर ने कहा कि शिवराम के नाटकों का हाड़ौती भाषा में अनुवाद करते समय उन्होंने अनुभव किया कि शिवराम में जन मनोविज्ञान और लोक मुहावरों को चित्रित करने की अपूर्व क्षमता थी, और यही कारण था कि उनके नाटक जनता से सीधे संवाद करते थे, उनकी चेतना में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करते थे।

समारोह की अध्यक्षता करते हुए ख्यात कवि अंबिकादत्त ने कहा कि परिवर्तनकामी चेतना को अपने साहित्य व नाटकों के जरिये व्यापक जन तक ले जाने वाले शिवराम जैसे रचनाकार विरल ही होते हैं। उनके सानिध्य की ऊर्जा अभी तक हमें इस तरह आंदोलित करती है कि लगता ही नहीं कि वे अब हमारे बीच में नहीं है। वरिष्ठ रचनाकार निर्मल पाण्डेय ने शिवराम को जीता-जागता जन-मीडिया और समय के आगे चलने वाले संस्कृतिकर्मी बताया। विशिष्ट अतिथि डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने संस्कृति और साहित्य के संबंधों को व्याख्यायित करते हुए शिवराम के योगदान को रेखांकित किया। अध्यक्ष मंडल के सदस्य दिनेश राय द्विवेदी ने अपने उद्बोधन में कहा कि शिवराम के जीवन और रचनाकर्म में कोई विलगाव नहीं था। वे जैसा देखते और विश्लेषित करते थे, वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसा ही अपने जीवन में उतारते और सक्रिय रहा करते थे। समय के द्वंद्वों और अंतर्विरोधों को समझने और उन्हें अपनी रचनाओं में सहजता से ढ़ालने की क्षमता उनके अंदर गहरे से पैबस्त थी। उन्होंने अपने नाटकों व कविताओं से जनता को प्रतिरोध की संस्कृति से संस्कारित करने, भयमुक्त होने तथा विद्रोह की ओर आगे बढ़ने की राह प्रशस्त की।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विकल्प के महासचिव महेन्द्र नेह ने सभी अतिथियों और भागीदारों का आभार व्यक्त किया। समारोह में कोटा शहर के साहित्य-कला-संस्कृति कर्मियों और प्रेमियों के साथ-साथ शिवराम के परिवारजनों ने भी सक्रिय भागीदारी की।

विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा

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सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प – शिवराम

सामान्य

सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प

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मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाठ से, बार-बार बलिहार॥
नाव में नदिया डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाए
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरौखा बैठिके, दांयी मारी आंख।
कबहुं दिखावे नैन तो, कबहुं खुजावे कांख॥
नयन से नयन लड़ावै
प्रम बढ़तौ ही जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
‘सेज’ में मनुवा डूबौ जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया।
ये जग झूठा, ये जग सांचा, ये जग ब्रह्म की माया॥
माया ब्रह्म अंग लगे
ब्रह्म माया में रमे
ब्रह्म की माया बरनी न जाय
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़-अड़ के वाणी हुई, अडियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर॥
चित्त की बात निराली
तुरुप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

००००००

शिवराम

‘जनता पागल हो गई है’ – एक पुनर्पाठ

सामान्य

‘जनता पागल हो गई है’ – एक पुनर्पाठ

( इस नाटक की पीडीएफ़ फाइल इस लिंक से डाउनलोड की जा सकती है‘जनता पागल हो गई है’ लेखक-शिवराम janta pagal ho gayi hai.pdf 1.4 MB )

शिवराम Shivram

जयपुर के एक बाग में नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ का प्रदर्शन

शिवराम का नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ आपातकाल से पहले ही 1974 में लिखा गया था, जो कालांतर में काफ़ी प्रसिद्ध हुआ। इसका पहला प्रदर्शन झालावाड़ महाविद्यालय में हुआ, और सव्यसाची ने इसे ‘उत्तरार्ध ’ में छापा। ‘जनता पागल हो गई है’ आपातकाल की परिस्थितियों में ज़्यादा माकूल हो कर उभरा, और इसकी अंतर्वस्तु ने इसे आपातकाल के दौरान पूरे देश में काफ़ी लोकप्रिय बना दिया। इसके कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हुए और हिंदी का यह पहला नुक्कड़ नाटक धीरे-धीरे सर्वाधिक खेले जाने वाला नाटक बन गया। तभी से शुरु हुए इस नाटक के प्रदर्शन अभी तक जारी हैं। अक्सर इसके खेले जाने की सूचनाएं मिलती रहती हैं।

इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि इस नाटक की अंतर्वस्तु में उन तत्वों की पड़ताल की जाए जो इसे इसके लिखे जाने के वक्त से लेकर अब तक प्रासंगिक और लोकप्रिय बनाए हुए हैं। इसकी उन खासियतों को देखा जाए, जो अभी भी रंगकर्मियों को इस नाटक के प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। साथ ही, जो अधिक जरूरी है, उन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों के विश्लेषण के साथ इस नाटक को समझने की जरूरत है, जिन्होंने इसमे अभिव्यक्ति पाई हैं, जो जस के तस बनी हुई हैं, और उन्हें बदलने की आंकाक्षा अब और भी ठोस-यथार्थ रूप में महसूस की जाने लगी है।

शिवराम का नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ एक साधारण सी मांग पर तात्कालिक रूप से लिखा गया था, जो उनके सामने उनके छोटे भाई पुरुषोत्तम ( जिन्हें अब शायर पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ के नाम से जाना जाता है ) ने अपने महाविद्यालय में हो रही नाटक प्रस्तुतियों के संदर्भ में रखी थी। इससे पहले शिवराम शुरुआती रूप से अपनी गतिविधियों के संदर्भ में ‘आगे बढ़ो’ नामक एक नाटक और फिर भगतसिंह पर एक नाटक लिख और खेल चुके थे। वे इन नाटकों के जरिए रामगंजमंड़ी इलाके की श्रमशील जनता के साथ अंतर्क्रियाओं से अपने अनुभवों को संपृक्त कर रहे थे, और साथ ही अध्ययन-मनन के जरिए अपने आपको सैद्धांतिक रूप से भी समृद्ध कर रहे थे। वे द्वंदात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की दार्शनिकी को आत्मसात कर रहे थे और इनके जरिए अपने परिवेश, समाज, राजनीति और दुनिया को समझने और समझाने की कवायदों में थे। ठीक इन्हीं परिस्थितियों में यह नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ लिखा गया।

बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नाटक संग्रह ‘जनता पागल हो गई है’ की भूमिका में शिवराम लिखते हैं, ” नुक्कड़ या चौपाल नाटक सिर्फ़ इसलिए अस्तित्व में नहीं आए कि ‘प्रेक्षागृह’ हमारी पहुंच में नहीं था बल्कि इसलिए आए कि प्रेक्षागृहों की पहुंच जनसाधारण तक नहीं थी और हम अपने विचार लेकर जनसाधारण के बीच पहुंचने को व्यग्र थे”। यह वाक्य जहां नुक्कड़ नाटक विधा की उत्पत्ति की आवश्यकता को रेखांकित करता है वहीं नाटको की अंतर्वस्तु और कथ्य की रूपरेखा को शिवराम के आगे के कथन, ” मेरे पास एक विचार था और गरीबी के अभिशाप तले जीने वाले लोगों के, मेरे गांव के किसानों और दलितों के मेरे इर्द गिर्द के जीवन के थोड़े बहुत अनुभव मेरे पास थे और सबसे ज़्यादा मेरे मनोजगत में व्याप्त हलचल, अपने जाने ‘सच’ को जनसाधारण तक पहुंचाने की व्यग्रता थी”, से समझा जा सकता है।

शिवराम द्वारा इस नई समझ के साथ तात्कालिक सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों के किये गए विश्लेषण, उपरोक्त परिस्थितियों में लिखे गये इस नाटक में बखूबी रूप से संश्लेषित हुए हैं। पारंपरिक लोक नाट्‍य शैली में, हास्य-व्यंग्यात्मक प्रस्तुति के साथ किया गया यह सांद्र और सर्वतोमुखी संश्लेषण ही, जो कि क्रांति के युटोपिया के साथ जनता की जीत पर समाप्त होता है, इसे वह धार और रवानगी देता है जो इसे रंगकर्मियों और दर्शकों, दोनों के बीच समान रूप से लोकप्रिय बनाती हैं।

इसी को और समझने के लिए आइये हम इस नाटक का पुनर्पाठ करते हैं, और उनको समझने और देखने की कोशिश करते हैं। मुझे इस नाटक को कई बार करने और कई बार निकट से दर्शकों के साथ देखने का अवसर प्राप्त हुआ है, और इसीलिए दर्शकों की हर चुटीले संवाद पर प्रतिक्रिया को पास से देखा है। नाटक में मुख्य पात्र सिर्फ़ छः हैं, यानि कम अभिनेताओं के साथ इसे बखूबी मंचित किया जा सकता हैं। चलिए अब इस नुक्कड़ नाटक की यात्रा शुरू करते हैं।

नाटक की शुरुआत सिपाही द्वारा श्रीमान भारत सरकार के पधारने की मुनादी के साथ होती है। वही सामंती राजशाही ठाठबाठ के साथ अशीर्वादी मुद्राओं में ‘सरकार’ का आगमन होता है। सरकार आते ही पुलिस को आवाज़ देती है और पुलिस अधिकारी हास्य भरे अंदाज़ के संवाद के साथ उपस्थित होता है, “जी हां मेहरबान, कद्रदान, क्या हुक्म है मेरे आका? किसका निकालूं कचूमर, किसका बिगाडूं खाका?”। यह संवाद पुलिस के चरित्र को बखूबी सामने रखता है, सत्ता के आदेशों के आगे दरबारी तरीके से नतमस्तक और आम आदमी का या सत्ता के विरोधी स्वरों का कचूमर निकालना और खाका बिगाड़ना जिसका कि मुख्य काम है। सरकार की हर पुकार को वह इसी हेतु समझता है। इस बार सरकार बेचैन है, चुनाव आने वाले हैं, अकाल, भुखमरी, मंहगाई, बेकारी से जनता त्रस्त है, वह ‘जनता’ से मिलने की आकांक्षा व्यक्त करती है। पुलिस अधिकारी को सरकार की यह बेचैनी खामख्वाह लगती है, वह सरकार के सामने जनता को पकड़ कर हाजिर करने की मुस्तैदी दिखाता है, परंतु सरकार उसे रोक लेती है और खुद ही जनता के सामने जाने की इच्छा व्यक्त करती है और माकूल सवारी और सुरक्षा इंतज़ामों की तैयारी के आदेश देती है।

इसके तुरंत बाद का दृश्य काफ़ी चुटीला और प्रतीतात्मक है, साधारणतयः इस तरह की नाटकीयता कम ही देखने को मिलती है। पुलिस अधिकारी एक सिपाही को कान पकड़ कर ले आता है, और उसे सवारी बनने का आदेश देता है, सिपाही हाथ-पैरों के बल घोड़ा बन जाता है। सरकार आशीर्वादी मुद्रा में उस पर बैठ जाती है, और घोड़ा सिपाही हिनहिनाते हुए सरकार को पीठ पर लादे चल देता है। राज्य पुलिस मशीनरी के जरिए विरोधों का दमन करता है और अपना स्थायित्व बनाए रखता है, एक तरह से यह कह सकते हैं कि राज्य की सत्ता उसकी पुलिस पर टिकी हुई होती है यानि पुलिस ही एक तरह से सत्ता का प्रत्यक्ष होती है और सरकारों को ढो रही होती है। शिवराम उपरोक्त व्यंग्यात्मक प्रतीकात्मकता रचते है, और अपनी इसी बात को एक हास्य दृश्य बुनकर दर्शकों तक बखूबी संप्रेषित कर जाते हैं।

तुकभरी काव्यात्मक संवादों की शैली लोक नाट्यों और रामलीलाओं में बहुत ही प्रचलित है और शिवराम ने इस नाटक में उसी तरह की संवाद शैली का बखूबी प्रयोग किया है। इस तरह के संवादों के साथ दर्शकों के साथ बेहतर तारतम्य बैठता है, और बात लंबे समय के लिए संप्रेषित होती है, दर्शकों की स्मृति में ये चुटीले संवाद बखूबी दर्ज़ हो जाते हैं। हमें इसके कई संवाद अभी भी जुबानी याद हैं, और दर्शकों को बाद में भी इसके कई संवादों को हूबहू प्रस्तुत करते हमने कई बार देखा है। बानगी देखिए, उपरोक्त दृश्य में पुलिस अधिकारी का संवाद :

“बेचैन होके आपने, जनता को पुकारा / कहते हैं अक्लमंद को काफ़ी है इशारा / जनता को हुक्म देता हूं दरबार में आए / सरकार याद करती है, आदाब बजाए / सरकार आपके कहने से, मैं बस्ती-बस्ती जाता हूं / नालायक जनता की बच्ची को, मैं अभी पकड़ कर लाता हूं”

और सरकार का प्रतिसंवाद : “हम सेवक हैं जनता के / जाएंगे ख़ुद उसके हुज़ूर में चलके / लाओ कोई माकूल सवारी करो सुरक्षा की तैयारी / पुलिस प्यारी . . . .  हमारी।”

सरकार की सवारी के सामने अचानक जनता आ जाती है, और अपने दुखड़े रोती है. पुलिस अधिकारी जनता को घुड़क रहा है, और सरकार विस्मय से उसे देखती हुई कहती है :

“ये कौन है और क्या हमें समझाए है / इसके तो इक-इक रोम से अपने को बदबू आए है / उफ़ मेरे नाज़ुक बदन को देखता है घूरकर / थाम ले मीसा में इसको और नज़र से दूर कर.”

यहां इस संवाद के जरिए शिवराम लोकतांत्रिक सरकारों के जनविरोधी चरित्र को पेश करना चाहते हैं। वे यह दर्शाते हैं कि सरकारों की आम जनता से इतनी दूरी है कि वे उसकी पहचान से भी परिचित नहीं रह जाती, उससे एक अलंघ्यनीय दूरी बना लेती हैं। यहीं मीसा जैसे कानूनों का जिक्र करके शिवराम उन सभी जनविरोधी कानूनों पर तंज कर रहे हैं जो कि असलियत में जनता के दमन और सरकारों की मनमर्जी, दादागिरी का ज़रिया बनकर उभरते हैं।

यहीं आगे एक संवाद में जनता सरकार से कहती है कि, ‘आप सर्वशक्तिमान हैं…आप तो ख़ुद भगवान हैं, माई बाप…आप भगवान के अवतार हैं सरकार…’। यह वही मानसिकता है जो राजा की दैवीय उत्पत्ति के मनु के सिद्धांत से होती हुई सामंती निरंकुशता के ज़रिए आम मानस में गहरी पैठा दी गई थी ताकि जनता राजाओं के विरुद्ध जाने की नैतिक शक्ति हासिल ना कर सकें और किसी भी तरह के प्रतिरोध की हिमाकत नहीं कर सकें। शिवराम इस संवाद के ज़रिए इस बात को सहज रूप से ही रख जाते हैं कि आम मानस में, तथाकथित लोकतंत्र की स्थापना के बावज़ूद जिसमें लोक ही वास्तविक शक्तिसंपन्न बताया जाता है, वही लौकिक और अलौकिक सामंती भय अभी भी बरकरार है क्योंकि यह तथाकथित लोकतंत्र भी उसी सामंती ठाठ-बाठ और जोर-जबर की तरह ही चलाया जा रहा है।

आगे जनता जब अपनी तकलीफ़ों का जिक्र करते हुए फूट पड़ती है, तब सरकार के संवादों में शिवराम आमतौर पर सत्ता के द्वारा अपनाए जाने वाले दार्शनिक और धार्मिक हथियारों की जरूरतों और प्रयोग के हालातों का बखूबी बयान करते हैं। जनता का संवाद है:

“ढोर डांगर मर गये सब, खेत पड़े वीरान / तिस पर बनियां और पटवारी मांगे ब्याज लगान
बालक भूखे मरें हमारे, हम कुछ कर न पाएं / ऐसी हालत है घर-घर में, जीते जी मर जाएं.”

अब सरकार का संवाद देखिए: ” धीरज ! धीरज रखो जनता / आखिर महल समाजवाद का धीरे-धीरे बनता / ज़िंदगी और मौत अपने बस की बात नहीं है। यह तो ( आसमान की ओर हाथ उठाकर ) भगवान के हाथ की बात है।”

यहां दो चीज़ों को एक साथ लाया गया है, पहला कांग्रेस का समाजवाद का नारा। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत जहां सारी संपदा मुट्टीभर पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रित होती जाती है, अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जाते हैं, वहां समाजवाद की बात करना जिसका कि मूल मतलब ही संपदा का समाज में समान वितरण है, एक अश्लील नारा बनकर उभरता है। यहां शिवराम यह दर्शाना चाहते हैं कि इस नाम को प्रयोग करने के पीछे की मजबूरियां क्या हैं। आखिरकार देश की बहुसंख्यक जनता को इस तरह के समाजवादी और गरीबी हटाओं जैसे नारों से भरमाए रखना, लोककल्याणकारी छवि को बनाए रखना जरूरी है। ये नारे और जनता की मांगों के सामने इन शब्दावलियों का प्रयोग दरअसल उनको तात्कालिक छलावा देना मात्र है।

दूसरी चीज़ है वह भाववादी और भाग्यवादी दर्शन, जिसे शिवराम जनता को भ्रमित और विरोध को दबाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले सत्ता के हथियार के रूप में सामने लाते हैं। वे साफ़-साफ़ ये इंगित करते हैं कि सत्ता और धर्म की आपसी जुगलबंदी, नाभीनालबद्धता यथास्थिति को बनाए रखने के लिए किस तरह जरूरी हो उठती है। जनता की ऐसी हालत और मरने जैसी परिस्थितियों तथा भुखमरी-मौतों के लिए सरकार सफ़ाई से भगवान को जिम्मेदार बता देती है। जनता के मन में पैठाई गईं आस्थाएं और भाग्यवादी दर्शन उसे पहले से ही इसके अनुकूलित रखता है और सत्ता द्वारा उसे भ्रमित करना और अपनी जिम्मेदारियों से बचना आसान कर देता है।

आगे सरकार जनता से पूछती है कि भूखी हो, जनता जवाब में हांमी भरती है उसके बाद का एक संवाद इस तरह से है; सरकार सहज भाव से कहती है : “तो, भूखी रहो। मगर खुश-खुश। कल के सुख के लिए आज कुर्बानी करनी ही होती है।…तुम्हें याद नहीं जनता अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने के लिए गांधी जी अक्सर लंबी भूख हड़ताल करते थे।” जनता कह उठती है: “अब किससे आज़ादी हासिल करनी है सरकार? हमारे तो पुरखे भी भूख काटते मर गए और हम भी मर जाएंगे…हमें भूख से आज़ादी कब मिलेगी सरकार?”

यहां सरकार आज़ादी की लड़ाई के दौरान काम में लाई गई दार्शनिकी को, आज़ादी के इतने साल बाद भी बेहयाई से काम में लेती हैं और यह सामने आता है कि गांधी को किस तरह बचाव के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। शिवराम जनता के जवाब के ज़रिए यह तथ्य सामने लाते हैं कि आज़ादी के पश्चात भी आम परिस्थितियां वैसी ही बनी हुई हैं और असली आज़ादी, भूख से आज़ादी का सवाल अब भी एक घिनौनी वास्तविकता की तरह हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है।

जैसा कि कहा जा चु्का है, सरकार चुनाव की मजबूरियों के तहत जनता से मुखातिब होने के लिए उसके बीच में अवतरित हुई है, तो जल्दी ही वह चुनावों के जिक्र और वोट देने का आग्रह करती है। वोट के बदले रोटी की बात कहती है, जनता को विश्वास नहीं होता तो फिर यहां शिवराम सरकारों, अन्य दलों द्वारा सामान्यतः चुनाव के समय किए जाने वाले इस तरह के कई आश्वासनों का जिक्र करते हैं। इसी समय नाटक में एक पात्र का अनायास प्रवेश होता है। वह ‘पागल’ है।

शिवराम द्वारा गढ़ा गया पागल का यह चरित्र कई जटिल भी और सहज सी भी अभिव्यक्तियों को समेटे हुए है। वह सर्वहारा के बीच से निकला है, आंदोलनों के सरकारी दमन का मारा हुआ है, उसकी चेतना संघर्ष की प्रक्रिया में तपी हुई है, वह पूंजी और सत्ता के इस खेल, गठजोड़ को समझता है, वह इसी को सामने लाने और जनता के सामने खोलने के लिए प्रवृत्त रहता है। ऐसा भी लग सकता है कि सरकारी दमन और अत्याचारों के चलते वह अपना मानसिल संतुलन खो बैठा है और पागल हो गया है। वहीं शिवराम इस ओर भी इशारा करते हैं कि आम मान्यताओं, भ्रमों तथा परंपराओं के ख़िलाफ़ जब भी कोई व्यक्ति अपनी बात कहता है, परिवर्तन और संघर्षों के ज़रिए दुनिया को बदलने की बात करता है तो आम मानसिकता उसे सहज रूप से ही पागल कह उठती है, कि यह तो पागल हो गया है, कि भला कुछ ऐसा भी होता है, कि ऐसा भी हो सकता है, कि दुनिया तो ऐसे ही बनी और चलती आ रही है, इसे बदलने की बात करना पागलपन के सिवाय क्या है।

इस समय के संवादों के ज़रिए शिवराम बताते हैं कि इस तरह की ‘पागल’ शक्तियां सच को सामने लाने की कोशिश करती रही हैं, जनता अपने अनुकूलन के कारण उनपर विश्वास के लिए असमंजस में होती है और वहीं सत्ता तथा सरकारें इनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देती हैं, इनके विरुद्ध सरकारी प्रचार-तंत्र खड़ा करती है, इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि इनकी बात जनता तक पहुंचने ही नहीं पाए और यदि छुट-पुट रूप में पहुंच भी जाएं तो जनता इन्हें गंभीरता से लेने की मानसिकता में ना हो, वह भ्रम में ही मुब्तिला रहे।

सरकार ऐसे ही पागलों से, और इसी बहाने अपने विरोधियों से भी जनता को चेताते हुए सावधान करते हुए कहती है कि, ‘देख जनता, तुझे तरह-तरह के लोग तरह-तरह से आकर बहकाएंगे। तू किसी के बहकावे में मत आना…।’ इस संवाद का अंत इस वाक्य से होता है, ‘मैंने जो कुछ भी किया जनता, तेरे भले के लिए किया। तेरे भले के लिए।’ पागल फिर बीच में कूद उठता है, उसका संवाद देखिए:
“हां जनता, सब कुछ तेरे भले के लिए। ये अपने लिए कार, कोठी, ऐशोआराम की चीज़ें जुटाई तो तेरे भले के लिए। देश पूंजीपतियों और जागीरदारों के हवाले कर दिया तो तेरे भले के लिए। मंहगाई, बेरोजगारी बढ़ाई तेरे भले के लिए। कच्ची बस्तियां उजाड़ी तो तेरे भले के लिए। टैक्स बढ़ाए तो तेरे भले के लिए। तुझ पर डंडे चलाए तो तेरे भले के लिए। अब तुझे जेल भेजेगी तो तेरे भले के लिए। मीसा, डी.आई.आर., आसुका-रासुका, टाडा-आडा सब तेरे भले के लिए। ये विदेशी कर्ज, तेरे भले के लिए। यह तानाशाही तर्ज, तेरे भले के लिए।”

सरकार पुलिस को बुलाकर कहती है: “इस पागल पर रखी जाए नज़र कड़ी / इसके पीछे हमको साजिश लगती कई बड़ी / कमबख़्त हमारी जनता को भड़काता है / कोई विदेशी एजेन्ट नज़र आता है…”

यहां शिवराम, सरकारों द्वारा भ्रमों के बावज़ूद जस्टीफाई नहीं किए जा सकने वाली बातों और विरोध की आवाजों के लिए आम-तौर पर विदेशी हाथ करार दिए जाने की मानसिकता पर सहज सा व्यंग्य करते हैं। वे यह स्पष्ट करते हैं कि चूंकि सारा प्रचार-तंत्र उनके हाथ में होता है, सत्ताएं अपके ख़िलाफ़ जाती सारी बातों, कार्यवाहियों को आसानी से अपने विरुद्ध किए जा रहे साजिशों, षड़यंत्रों का रूप दे देती हैं, और इस सामान्य तर्क के ज़रिए इस बात को सिद्ध करने की कोशिश करती हैं कि किसी भी तरह के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ इस तरह के षड़यंत्र किया जाना आम बात है और यह सब वही सत्ता, प्रभुत्व प्राप्त करने की आकांक्षाओं के अंतर्गत किए जाने वाला दुष्प्रचार मात्र है।

पुलिस द्वारा सरकार को घोड़ा बनकर ढोए जाने वाले दृश्य का जिक्र पहले किया जा चुका है, उसी संदर्भ में नाटक में शिवराम अब एक और नाटकीयता रचते हैं। वे यह प्रदर्शित करते हैं कि सरकारों को ढोने वाली पुलिस के सामान्य सिपाही भी सर्वहारा वर्ग से आते हैं, उनके साझे दुख-दर्द हैं, इसलिए उन्हें भी इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्षों में साथ आना चाहिए, साथ लाना होगा। वे इसके लिए अधिकारी द्वारा पुनः सवारी बनने के लिए कहे जाने पर सिपाही का विद्रोह दिखाते हैं। सिपाही का संवाद देखिए:

“नहीं बनेंगे अब हम सवारी। दिन-रात जानवरों की तरह खटें। तुम्हारे बीवी-बच्चों की गुलामी बजाएं। तुम्हारे हुक्म पर आदमी पर डंडे चलाएं और बदले में मुट्ठी भर वेतन और ये ज़लालत, अब नहीं होगा ये सब। आखिर हम भी इन्सान हैं। कब तक जियेंगे ये जानवरों सी ज़िंदगी। जिल्लत की ज़िंदगी, ज़लालत की रोटियां।…हुं ! हम भी अपनी यूनियन बनाएंगे। नहीं बनेंगे अब हम सवारी-अवारी। पुलिस यूनियन ज़िंदाबाद ! इन्कलाब ज़िंदाबाद !”

इस पुलिस विद्रोह का दमन किया जाता है और अंततः सिपाही को फिर से सवारी बनने को मजबूर कर दिया जाता है। एक बार शिवराम ने बताया था कि इस दृश्य के पीछे दरअसल एक वास्तविक खबर का आधार था, जिसमें एक पुलिस यूनियन बनाने के प्रयासों का बेदर्दी से दमन कर दिया गया था, स्थान अब स्मृति में नहीं रहा है।

सरकार वोट मांगते हुए पुलिस की सवारी पर निकल जाती है, जनता रोजी, रोटी, भूख, बेकारी पर बुदबुदाते हुए भौंचक्की खड़ी रह जाती है। जनता की तकलीफ़ो पर सरकारों की संवेदनहीनता बयान करता जनता का यह मार्मिक संवाद देखिए: “मैंने अपना हाथ पसारा / उसने दिया चमकता नारा
देखी नहीं जिगर की चोट / देखा केवल मेरा वोट”

पागल का प्रवेश होता है, पहले वह वोट की राजनीति पर व्यंग्य करता हुआ गीत गाता है: “वोट माने कुर्सी, वोट माने राज / वोट माने सत्ता, वोट माने ताज / वोट माने लूट का पट्टा, पांच बरस को और / वोट माने ठगा गया फिर, पांच बरस को और”

फिर वह जनता से भूख के बारे में पूछता है, और जब कुछ नहीं सूझता तो वह गाने के लिए कहता है। ‘भूखे भजन ना होए गोपाला’ की लोकसमझ के सापेक्ष ‘भूख से बचने के लिए भजन’ वाली मानसिकता पर तंज करवाते हुए शिवराम यहां पागल से गाना गवाते हैं, भजन के बरअक्स हालांकि यह गाना एक अलग ही वितान रचता है। यह गीत काफ़ी लोकप्रिय हो उठता है और दर्शकों की स्मृति में ठहर सा जाता है जिसे वे बाद में भी गुनगुनाते रहते हैं:

“भूख लगे तो गाना गा / भूख लगे तो गाना गा, जनता तू गाना गा
ये सरकार बनी है बहरी / गूंगी इसकी सभी कचहरी / पर्दे फट जाएं कान के इसके / ऐसा गाना गा
जनता तू गाना गा, भूख लगे तो गाना गा
इस सरकार की चमड़ी मोटी / सेठों से फिट इसकी गोटी / सर्द पसीने छूटें इसको / ऐसा गाना गा
जनता तू गाना गा, भूख लगे तो गाना गा”

जनता साथ-साथ गुनगुनाने-गाने लगती है, फिर लाठी पटकते हुए बोल उठती है, ‘अरे पागल ! गाने से भी कहीं पेट भरता है।’ शिवराम इस तरह पागल और उसके तात्कालिक समाधानविहीन वितंड़ा पर भी करारा व्यंग्य कर जाते हैं। वे इस तरह बताना चाहते हैं कि कोरी लफ्फ़ाजियों से आमजन की पीड़ाओं के समाधान नहीं निकला करते, तात्कालिक समस्याओं की तकलीफ़ कम नहीं हुआ करती। मुक्तिकामी दूरगामी संघर्षों की श्रृंखलाएं, तात्कालिक जीवनीय जरूरतों के संघर्षों के साथ नाभीनालबद्ध होकर ही परवान चढ़ सकती हैं। आमजन के फौरी संघर्षों से अपने को जोड़कर ही प्रगतिशील शक्तियां जनता के साथ वह आपसदारी, वह विश्वास पैदा कर सकती हैं जिसके ज़रिए लंबी लड़ाइयों की पृष्ठभूमियां तैयार की जा सकती हैं। इसके बिना ये शक्तियां आमजन के बीच तारतम्य हासिल नहीं कर सकती और जनता से दूरियों को बढ़ा ही सकती है, सिर्फ़ एक ऐसी जनपक्षधरता के आयाम रच सकती हैं जिसका जन से कोई वास्तविक जुड़ाव नहीं रह जाता, और यह विलगाव अंततः उनकी जनपक्षधरता के सिद्धांतो में भी कई तरह के भटकावों के लिए भी ज़मीन तैयार करता है।

नाटक में यहां पूंजीपति का प्रवेश होता है और वह जनता को रोटी के लिए अपने कारखानों में काम करने के लिए तैयार करता है। इसी दौरान पागल की नौंक-झौंक से परेशान होकर पूंजीपति, पुलिस के ज़रिए उसे वहां से भगा देता है। यहां एक संवाद शिवराम दोनों के बीच कहलवाते हैं, वह दृष्टव्य है। पागल कहता है, ‘क्यों ये देश तेरे बाप का है क्या?’, जवाब में पूंजीपति जब पुलिस को बुलाकर उसे भगा देता है और पुलिस भी बख्शीश लेकर चली जाती है तब वह जनता से मुखातिब होकर हंसते हुए कहता है, ‘पता चला, देश किसका है?’ पुलिस किसकी है? बड़ी ही सहजता के साथ शिवराम इस तरह देश के पूंजीवादी लोकतंत्र की वास्तविक चालक शक्तियों का सच दर्शकों के सामने रख देते हैं।

पूंजीपति जनता को अपने कारखाने में ले जाता है और उसे एक मशीन पर काम में लगा देता है। यहां मशीन पर काम सिखाने का दृश्य है और साथ ही जनता के पुराने ढीले-ढाले कपड़े उतरवा कर कारखाने की पेंट-शर्ट वाली यूनीफार्म पहनवाने के भी। पूंजीपति द्वारा जनता का साफा भी उतारकर फैंक दिया जाता है। ये प्रतीकात्मक दृश्य साधारण सा लगता है तथा थोड़े ही समय में निकल जाता है पर अपने प्रभाव में शिवराम यहां कई गहरी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की तरफ़ मूक इशारे कर जाते है। किसान जनता के सामने निजी श्रम की खेती में बढ़ती समस्याएं, कर्ज और ब्याज का बढ़ता बोझ, फसलों के ज़रिए दो जून की रोटी प्राप्त करने की भी असमर्थता, उसे मजदूरी के लिए मजबूर करती है और अंततः ज़मीनों से बेदखली उसकी सर्वाहाराकरण की प्रक्रिया को पूरा करती है। उसके पास जीवनयापन के लिए श्रम को एक माल की तरह बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोडती, वह कारखाना मज़दूर हो जाता है। कारखानों के लिए, श्रम को बेचने के दूसरे अवसरों के लिए, वह शहरों की तरफ़ रुख करता है। कारखाने की वर्दी पहनने और साफा फैंकने के दृश्यों के ज़रिए शिवराम मज़दूरीकरण, शहरीकरण तथा इस प्रक्रिया में परंपराओं और मूल्यों में हो रहे मूक बदलावों की गज़ब की प्रतीकात्मकता रचते हैं।

जनता मज़दूर बनकर कारखाने में मशीन पर काम कर रही है। कठोर नियमित श्रम के कारण थकान और पीड़ा मे है। जनता इसके बावज़ूद भी बिना कुछ कहे काम करती रहे, विरोध ना करे इसके लिए व्यवस्था किस तरह धर्म-दर्शन, भाग्यवाद और पुनर्जन्म के सिद्धांत का सहारा लेती है, या यूं भी कहे यह धर्म-दर्शन किस तरह यथास्थिति और शोषण के अभ्यारण्यों को बनाए रखने के लिए व्यवस्था के लिए आधार प्रस्तुत करता है, किस तरह प्रचलित कर दिए गए इन विचारों के जुमले इन स्थितियों में व्यवस्था की मदद करते हैं, यह दिखाने के लिए शिवराम यहां पूंजीपति से यह संवाद कहलाते हैं:

“पीड़ा होती है जनता? तो पीड़ा सहने का अभ्यास करो। इसी में सद्‍गति है। सारे धर्मों का यही सार है जनता – सहनशील बनों ! संतोष करो ! परिश्रमी बनों ! भगवान से डरो ! भाग्य पर भरोसा रखो ! तुम्हारे इस जन्म के दुःख-सुख पूर्वजन्मों के फल हैं। इस जन्म में अच्छे कर्म करो, अपने कर्तव्यों का पालन करो। अगले जन्म में इसके सुफल तुम्हें प्राप्त होंगे। धर्मप्राण बनो जनता। इसी में कल्याण है।”

जनता की थकान और पीड़ाओं को देखते हुए पूंजीपति बात आगे बढ़ाता है और मायावाद तथा गीता के कर्मदर्शन का उपदेश करने लगता है: “यह जो तुम दुखी हो दरिद्र हो तो पूर्वजन्म के पापों के कारण। मैं जो सुखी और समृद्ध हूं तो पूर्वजन्म के पुण्यों के कारण। ईश्वर का विधान ही ऐसा है। जो भी हो रहा है, जो भी हुआ है उसी की मर्जी से हुआ, आगे जो भी होगा उसी की मर्जी से होगा। ईश्वर ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। यह सब स्वप्न की तरह है। अतः निष्काम कर्म ही मुक्ति का मार्ग है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है – कर्मण्यवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचनः। काम किए जा…फल की इच्छा मत कर…काम किए जा…फल की इच्छा मत कर…”

इस दृश्य में पूंजीपति इस वाक्यांश को ताल में उच्चारित करने लगता है, जनता उसी ताल में मशीन पर काम करती है। पूंजीपति के उच्चारण की गति तीव्र और धीमी होने के अनुसार ही जनता के काम की गति भी तीव्र और धीमी होती है। जनता के हाथ से सिक्के झरने लगते हैं। पूंजीपति सिक्के बटोरने लगता है। श्रम और उसके शोषण के ज़रिए पूंजी के उत्पादन और पूंजीपति द्वारा उसे हथियाने का यह प्रतीकात्मक दृश्य बहुत ही नाटकीय प्रभाव छोड़ता है। इस प्रभाव के संप्रेषण को बढ़ाने के लिए शिवराम यहां पागल का प्रवेश करवाते हैं और उसके संवाद के ज़रिए बात को साफ़ करते हैं, साथ ही श्रम से विलगाव के अन्य शारीरिक प्रभावों को भी रेखांकित करते हैं:

“धन, सिक्के ! जनता की मेहनत से दौलत पैदा हुई और ये तोंदूमल लगा है इसे बटोरने। मेहनत जनता की दौलत तोंदूमल की…ह…ह…ह…ह…( पूजीपति से ) ऐ तोंदूमल उठ। चल इधर चल। तू भी काम कर। जनता की कमाई पर हाथ मत मार। अपनी मेहनत की खा। मेहनत के और भी कई फायदे हैं। मेहनत करेगा तो तेरी तोंद भी छंट जाएगी। डायबिटिज नहीं होगी। ब्लड़प्रेशर भी सही हो जाएगा और तेरा भेजा भी ठीक काम करेगा।…चल काम कर…”

पूंजीपति पुलिस को बुलाकर पागल को खदेड़ता है और पुलिस अधिकारी को बटोरी गई दौलत में से कुछ हिस्सा रिश्वत में देता है। इस तरह पूंजीपति और पुलिस के बीच की सांठगांठ को उजागर किया जाता है। जनता काम बंद कर देती है, और रोटी की मांग करती है। वह आठ रोटी मांगती है, पूंजीपति उसके सामने दो रोटी उछाल देता है और संतोषवादी दर्शन का उपदेश देता है, ‘झूठी बात…!…ले…रूखी-सूखी खायके ठंड़ा पानी पीव। देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव…हह…हह…” इसके बाद जनता और रोटी मांगती है तो पूंजीपति उसे झिडकते हुए और काम करने, ओवरटाइम करने को कहता है। जनता और काम करती है, और पूंजी पैदा होती है, पूंजीपति उसे भी बटोर लेता है। पूंजीपति का संवाद देखिए, ‘आराम हराम है जनता। और रोटी के लिए और काम करो।’

जनता थक कर काम करने से मना कर देती है, और मांग रखती है कि भरपेट रोटी दो तभी काम करेंगे। यहां शिवराम काम बंद करने और मांग रखने के लिए जो दृश्य रचते हैं, वह हड़ताल की प्रतीकात्मकता के लिए है और उसे वह पागल के चरित्र के ज़रिए स्पष्ट भी करते चलते हैं। पूंजीपति पुलिस को बुलवाता है और जनता को संभालने के लिए कहता है। इस व्यवस्था में प्रचलित कई जुमलों के निहितार्थ पूंजीपति के पुलिस अधिकारी को कहे इस संवाद में खुलकर सामने आते हैं: “जनता हड़ताल कर रही है। जनता काम करने से इंकार कर रही है। पागल लोग जनता को भड़का रहे हैं। कानून व्यवस्था भंग हो रही है। उत्पादन में अव्यवस्था फैल रही है। राष्ट्र, देश, समाज, व्यवस्था, कौम सब ख़तरे में है। ऐसे में मत करो ऐसी-वैसी बात। कर्तव्य का पालन करो और याद रखो अपनी औकात। जनता को संभालो, संभालो जनता को।”

पुलिस मार-मार कर जनता और पागल दोनों को अधमरा कर देती है। जनता फिर से काम के लिए तैयार कर ली जाती है। प्रशासन का ऐलान होता है, स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है है। इस तरह शिवराम जनता के विरोधों और आंदोलनों तथा व्यवस्था द्वारा उनके बर्बर दमन की प्रतीकात्मकता रचते हैं।

इसके पश्चात शिवराम लोकतांत्रिक मूल्यों और सीमाओं के अंतर्गत प्रतिरोध और उनकी परिणतियों को दर्शाने के लिए अगले दृश्य रचते हैं, जनता अपनी शिकायत सरकार के दरबार में करती है। यहां सरकार और पूंजीपति के बीच के संवाद उनके बीच की सांठगांठ, चुनावी लोकतंत्र के सच, तथा अपनी सत्ता के हितार्थ जनता की एकता को तोडने और उसे दिग्भ्रमित बनाए रखने की आवश्यकता को उजागर करने के लिए महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं, बानगी देखिए:

पूंजीपति: जनता काम करने से इन्कार करती है। उत्पादन ठप्प हो गया है। उत्पादन नहीं होगा तो मुनाफ़े का क्या होगा? मुनाफ़ा नहीं होगा तो चुनाव फंड का क्या होगा? आपकी कुर्सी का क्या होगा? देश का क्या होगा?
सरकार: लेकिन चुनाव के समय का तो ध्यान रखना चाहिए। हम चुनाव हार गए यो हमारा क्या होगा? और हम नहीं होंगे तो तुम्हारा क्या होगा? आप क्या सोचते हैं ये विरोधी दल आपकी वैतरणी पार करा देंगे और फिर कम्युनिस्ट भी तो आ सकते हैं।….तुम्हारी खातिर हमने विदेशी कंपनियों के लिए देश के सभी दरवाज़े खोल दिए। देश की स्वतंत्रता और संप्रभुता तक को दाव पर लगा दिया। देश को विदेशी कर्ज में डुबो दिया, और अब आप चुनाव के समय जनता को तंग कर रहे हैं।
पूंजीपति: अब ये जनता ऐसे काबू में नहीं रह सकेगी। सख्ती से पेश आना होगा। इसकी एकता को छिन्न-भिन्न करना होगा। इसे दिग्भ्रमित करना होगा। जनता को विद्रोह के लिए उकसाने वाले पागलों को ठिकाने लगाना होगा…संभालिए…अब जैसे भी हो जनता को संभालिए।

सरकार जनता को समझाने की कोशिश करती है, जनता फिर से काम करने लगती है फिर पूंजीपति और सरकार के बीच की सांठगांठ और सरकार के पाखण्डपूर्ण व्यवहार को देख-समझकर काम करने से मना कर देती है। सरकार के यह कहने पर कि ‘तुम पागल हो गई हो जनता’ जनता हुंकार कर कहती है: “हां, हम पागल हो गए हैं। ( दर्शकों से ) इनकी मर्जी मुताबिक पिसते रहो तो ठीक। दिन-रात भूखे-प्यासे खटते रहो तो ठीक। चुपचाप जुल्म सहते रहो तो ठीक। और जो कुछ बोलो, न्याय की गुहार करो, हक मांगो तो तुम पागल हो गई हो जनता, अरे, पागल हो गए हो तुम। ( लाठी खटकाती है )”

सरकार पुलिस को बुलाती है, जनता लाठी तानकर खड़ी हो जाती है। पुलिस जनता पर वार करने को उद्धत होती है, जनता रौद्र रूप धारण कर लेती है और ताबड़तोड़ लाठी चलाने लगती है, पागल भी डंडा लेकर जनता के साथ आ मिलता है। पुलिस भाग खड़ी होती है। सरकार और पूंजीपाति मिलिट्री को बुलाते है। जनता और पागल सरकार और पूंजीपति की ओर लपकते हैं, सेना आती है और गोलियां बरसाने लगती है। जनता धावा बोल देती है और दृश्यपटल से सभी को खदेड देती है। इस तरह विद्रोह के इस वितान के साथ नाटक समाप्त होता है। शिवराम इस शोषण की व्यवस्था से मुक्ति के स्वप्न, सचेतन रूप से जनता के विद्रोह के रूप में देखते हैं और जनवादी क्रांति के ज़रिए मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म किए जाने की वकालत करते हैं। अभी-अभी मरहूम हुए मशहूर जनकवि अदम गोंडवी के शब्दों में कहें तो: “जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में“।

इस तरह हम देखते हैं कि शिवराम का यह नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ एक साथ कई सारी चीज़ों को समेटे हुए है। यह सामंती व्यवस्था से पूंजीवादी व्यवस्था में संक्रमण, सर्वहा्राकरण, शहरीकरण, आदि जैसी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की भौतिकवादी दृष्टिकोण से रखता है। सामाजिक परिस्थितियों तथा प्रवृत्तियों और सामाजिक शक्तियों के बीच संबंधों के द्वंदात्मक विश्लेषण को प्रकट करता है। यह जनता की पीड़ाओं तथा उसके शोषण को, पूंजीवादी-लोकतांत्रिक सरकारों के जनविरोधी चरित्र को, पूंजीपतियों द्वारा श्रम के दोहन, शोषण और सत्ता के साथ मिलकर पूंजी की लूट को, राज्य और पुलिसिया तंत्र की सांठगांठों और बर्बरता को, व्यवस्था विरोधों के दमन को सामने लाता है और साथ ही जनता तथा जनपक्षकारी शक्तियों के प्रतिरोधों, संघर्षों, उनकी मुक्तिकामी इच्छाओं को भी सकारात्मक रूप में अभिव्यक्ति देता है। इसमें धार्मिक-भाववादी दर्शन, उसके जनविरोधी चरित्र और सत्ता के साथ नाभिनालबद्धता को भी चुटीले ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है। यह नाटक लोक परंपरा से जुड़ते हुए नौटंकी शैली तथा कवितामयी संवादों, हास्य और नाटकीयता से भरपूर छोटे-छोटे प्रतीकात्मक दृश्यों, पैने और सटीक व्यंग्यों के ज़रिए सीधे दर्शकों से संवाद करता, उनके सामने व्यवस्था का पूरा वितान खोलता चलता है।

छोटे कलेवर में विस्तृत और व्यापक फलक पर गागर में सागर भरने वाली यही सशक्त अंतर्वस्तु और सटीक अभिव्यक्ति, इस नुक्कड़ नाटक को जनता के संघर्षों से, उसकी मुक्तिकामी आकांक्षाओं से जोडती है। इसको करने वाले नाट्यकर्मियों, जनसंघर्षकारी जत्थों के लिए हौसले का काम करती है, उनके लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से जनता के सामने रखने में उनकी मदद करती है। यही बात इसे इसके लिखे जाने से लेकर अभी तक लोकप्रिय बनाए हुए है, कालजयी रचना बनाए हुए है।

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रवि कुमार

( इस नाटक की पीडीएफ़ फाइल इस लिंक से डाउनलोड की जा सकती है ‘जनता पागल हो गई है’ लेखक-शिवराम janta pagal ho gayi hai.pdf 1.4 MB )

शिवराम Shivram

नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ का आखिरी दृश्य जिसमें जनता अपनी लाठी से सरकार और पूंजीपति को खदेड़ती है

व्यापक जन-आंदोलन का माहौल बनाना होगा

सामान्य

द्वितीय शिवराम स्मृति दिवस समारोह
व्यापक जन-आंदोलन का माहौल बनाना होगा

कोटा, 2 अक्टूबर 2012. सुप्रसिद्ध कवि, नाट्य लेखक, निर्देशक, समीक्षक एवं विचारक शिवराम के द्वितीय स्मृति दिवस पर ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच, श्रमजीवी विचार मंच एवं अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच द्वारा 30 सितम्बर व 1 अक्टूबर को ‘आशीर्वाद हॉल’ कोटा में दो दिवसीय वृहत साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन किया गया। इस आयोजन का उद्देश्य शिवराम द्वारा जीवन-पर्यन्त साहित्य, संस्कृति, समाज, राजनीति एवं विविध क्षेत्रों में किये गये प्रयत्नों को एकसूत्रता में पिरोना, उनकी स्मृति को संकल्प में तथा शोक को संकल्प में ढालने का साझा प्रयास था। आयोजन में देश के विभिन्न हिस्सों से आमंत्रित लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के अलावा हाड़ौती-अंचल के करीब दो सौ से अधिक रचनाकार, श्रोता व पाठक शामिल हुए।

इस महत्वपूर्ण आयोजन में जनवादी रचनाकारों व संस्कृतिकर्मियों ने बाजारवादी अप-संस्कृति एवं सामन्ती संस्कृति के खिलाफ नई जनपक्षधर संस्कृति का विकल्प खड़ा करने की जरूरत बताई। साथ ही बताया कि पूंजीवादी राजनीति का घिनौना चेहरा जनतांत्रिक मूल्यों को तहस-नहस कर रहा है। ऐसे में व्यापक जन-आंदोलन का माहौल बनाना होगा। आयोजन का प्रारम्भ 30 सितम्बर को मुख्य अतिथि, ‘विकल्प’ अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ( मुजफ्फरपुर ) द्वारा मशाल प्रज्ज्वलित करके किया गया। सुप्रसिद्ध भोजपुरी गायक दीपक कुमार ( सीवान ) की अगुआई में मोर्चा के बैनर-गीत ‘ये वक्त की आवाज है मिल के चलो’ के पश्चात् वासुदेव प्रसाद ( गया) , प्रशांत पुष्कर ( सीवान ) एवं शरद तैलंग ( कोटा ) द्वारा शिवराम के जन-गीतों तथा गण-संगीत की प्रभावी प्रस्तुति की गई। ‘विकल्प’ जनसांस्कृतिक मंच के सचिव शकूर अनवर द्वारा स्वागत-वक्तव्य में अतिथियों का स्वागत करते हुए आयोजन के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया।

अपरान्ह 3 बजे ‘‘सांस्कृतिक नव जागरण: परिदृश्य एवं संभावनाऐं’’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश व अन्य स्थानों के जाने-माने साहित्यकारों ने अपने विचार व्यक्त किये। विशिष्ट-अतिथि हरेराम ‘समीप’ ( फरीदाबाद ) ने कहा कि कार्पोरेट घरानों और शासक दलों की सांठ-गांठ के चलते विषमता और असमानता चरम पर पहुंच गई है। सांस्कृतिक क्षरण भी चरम पर है। ऐसे दुर्योधन-वक्त में व्यापक जन-आंदोलन खड़ा करने के लिए जनता को जगाना होगा। शैलेन्द्र चैहान ( दिल्ली ) ने कहा कि हमें सामंती संस्कृति के मुकाबले नई वैकल्पिक संस्कृति का निर्माण करना होगा। डॉ. रामशंकर तिवारी ( फरीदाबाद ) ने कहा कि सामंतवादी संस्कृति आज भी समाज में मौजूद है। दक्षिणपंथी ताकतें पुनरुत्थान आंदोलन चला रही हैं। दलितों, आदिवासियों और महिलाओं से भेदभाव के संस्कार हमारे व्यक्तित्व में अंदर तक है। तीज-त्यौहार भी बाजारवादी संस्कृति के हवाले होते जा रहे हैं।

डॉ. मंजरी वर्मा ( मुजफ्फरपुर ) ने कहा कि हमारी संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से कई तरह की खामियां पैदा हो गई हैं। शिवराम ने जिस तरह गांव-गांव जाकर नाटकों के मंचन से जन-संस्कृति की अलख जगाई थी, उसी तर्ज पर हमें जुटना होगा। नारायश शर्मा ( कोटा ) ने कहा कि संस्कृति के क्षेत्र में घालमेल नहीं होना चाहिए। मीडिया दिन-रात मुट्ठीभर अमीरों की संस्कृति का प्रचार कर रहा है, सांस्कृतिक नव-जागरण के लिए करोड़ों गरीबों व मेहनतकशों की संस्कृति का परचम ही उठाना होगा। पटना से आये विजय कुमार चैधरी ने कहा कि इन दिनों प्रगतिशील-जनवादी संस्कृतिकर्मियों व उनकी पत्रिकाओं के बीच भी रहस्यवाद, भाग्यवाद व कलावाद के पक्षधर स्थान पाने लगे हैं, इस प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए। डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ने समाहार करते हुए कहा कि इस समय बाजारवादी – सामंती संस्कृति अपने पतन की पराकाष्ठा पर है तथा आम-जन को गहरे भटकावों में फॅंसा रही है। ऐसे समय में हमें भारतेन्दु, प्रेमचन्द, राहुल, निराला, नागार्जुन, यादवचन्द्र व शिवराम की तरह जनता को जगाने के लिए देशव्यापी सांस्कृतिक अभियान छेड़ना होगा।

अध्यक्ष मण्डल की ओर से बोलते हुए तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर.पी. यादव ने कहा कि किसी भी देश के विकास में विचार की मुख्य भूमिका होती है। डॉ. नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि जागरूक संस्कृति कर्म द्वारा समाज की प्रचलित रूढि़यों व मूल्यहीनता को एक हद तक रोका जा सकता है। परिचर्चा में टी.जी. विजय कुमार, शून्य आकांक्षी, वीरेन्द्र विद्यार्थी एवं विजय सिंह पालीवाल ने भी अपने विचार व्यक्त किये। संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

समारोह के दूसरे दिन 1 अक्टूबर, 12 को शिवराम द्वारा लिखित नाटक ‘नाट्य-रक्षक’ की बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति ‘अनाम’ कोटा के कलाकारों द्वारा की गई। नाटक में वर्तमान ‘मतदान-पद्धति’, जिसे भारतीय लोकतंत्र का आधार बताकर प्रचारित किया जाता है, का चरित्र पूरी तरह पैसे और बाहुबल द्वारा निर्धारित हो जाने पर करारा व्यंग्य किया गया। अजहर अली द्वारा निर्देशित इस नाटक में प्रमुख पात्रों की भूमिका डॉ पवन कुमार स्वर्णकार, भरत यादव, रोहित पुरुषोत्तम, आकाश सोनी, तपन झा, गौरांग, देवेन्द्र खुराना, राकेश, सचिन राठौड़ व अजहर अली ने निभाई। गया से पधारे नाट्य-कर्मी वासुदेव एवं कृष्णा जी द्वारा प्रेमचन्द की कहानी ‘सद्गति’ की मगही भाषा में प्रभावी नाट्य-प्रस्तुति भी की गई।

इस अवसर पर ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी सम्पन्न हुई। बैठक में मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव महेन्द्र नेह द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय परिस्थितियों में आ रहे महत्वपूर्ण परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में शहर से गांवों तक जन-संस्कृति की मुहिम छेड़ने, देशभर में प्रगतिशील जनवादी लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के बीच व्यापक एकता विकसित करने तथा संस्कृतिकर्म को मेहनतकश जनता के जीवन-संघर्षों से जोड़ने पर बल दिया गया। बैठक में संगठन को मजबूत करने के साथ आगामी कार्यक्रम की रूपरेखा भी निर्धारित की गई।

इस समारोह में रवि कुमार ( रावतभाटा ) द्वारा, कविता-पोस्टर प्रदर्शनी और ‘विकल्प’ द्वारा एक लघु-पुस्तिका प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें दर्शकों और पाठकों ने अपनी गहरी रुचि प्रदर्शित की। ‘कविता पोस्टर प्रदर्शनी’ का उद्घाटन तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर.पी. यादव द्वारा किया गया। इस अवसर पर शिवराम की पत्नी श्रीमती सोमवती देवी एवं अन्य अतिथियों द्वारा महेन्द्र नेह द्वारा संपादित ‘अभिव्यक्ति’ पत्रिका के शिवराम विशेषांक का लोकार्पण किया गया।

1 अक्टूबर को दूसरे सत्र में वृहत् कवि-सम्मेलन एंव मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसकी अध्यक्षता निर्मल पाण्डेय व अखिलेश अंजुम ने की। विशिष्ट अतिथि जनवादी कवि अलीक ( रतलाम ), मदन मदिर ( बूंदी ) व सी.एल. सांखला ( टाकरवाड़ा ) सहित अंचल के प्रतिनिधि कवियों व शायरों ने अपनी प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया। ओम नागर, हितेश व्यास व उदयमणि द्वारा शिवराम को समर्पित कविताऐं सुनाईं। संचालन आर.सी. शर्मा ‘आरसी’ द्वारा किया गया। स्वागत-समिति की ओर से दिनेशराय द्विवेदी, जवाहरलाल जैन, धर्मनारायण दुबे, शब्बीर अहमद व परमानन्द कौशिक द्वारा सभी अतिथियों व सहभागियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया गया।

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‘अभिव्यक्ति’ का नया 39वां अंक उपलब्ध हो गया है. शिवराम पर केन्द्रित इस विशेषांक का मूल्य 50 रुपये है. मंगाने के लिए संपादक महेन्द्र नेह से संपर्क किया जा सकता है.

महेन्द्र नेह
80, प्रताप नगर, दादाबाड़ी, कोटा-323309
ईमेल – mahendraneh@gmail.com
दूरभाष – 0744-2501944, चलभाष – 09314416444

‘अनाम’ की नाट्य प्रस्तुति – शिवराम को रचनात्मक श्रृद्धांजलि

सामान्य

अनाम’ की नाट्य प्रस्तुति
“ईश्वर अल्लाह तेरो नाम” का प्रभावी मंचन
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी साथी शिवराम को दी गई रचनात्मक श्रृद्धांजलि

shivram - sketch by ravi kumar, rawatbhata२५ दिसंबर २०११. कोटा की रंगकर्मी संस्था ‘अनाम’ अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच के रंगकर्मी साथियों ने ‘अनाम’ के संस्थापक, प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं रंगकर्मी साथी शिवराम के निधन के पश्चात हर वर्ष उनके जन्मदिवस पर उनकी स्मृति को समर्पित एक नाट्य प्रस्तुति करने का संकल्प किया था। इसी श्रृंखला में शिवराम के ६३वें जन्मदिवस ( २३ दिसंबर ) के अवसर पर उनको रचनात्मक श्रृंद्धांजलि देने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन ऐलन इंस्टिट्यूट स्थित सद्‍भाव सभागार में किया गया। इस आयोजन में गीत-दोहों की संगीतमयी प्रस्तुति और प्रबोध जोशी लिखित मशहूर नाटक ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ का मंचन किया गया।

संचालन करते हुए ‘विकल्प’ के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने शिवराम के संघर्षमयी जीवन और क्रांतिकारी मूल्यों पर एक संक्षिप्त वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कहा कि शिवराम एक उच्च कोटि के विचारक, सृजनधर्मी, संघर्षशील साथी तो थे ही, लेकिन इससे भी बढ़कर इंसानियत का गहरा जज़्बा और संवेदशीलता उनके रोम-रोम से व्यक्त होती थी। मेहनतकश जन-गण की मुक्ति तथा शोषण-विहीन, पाखण्ड रहित, ज्ञान-विज्ञान-कला और संस्कृति से समृद्ध एवं समानता पर आधारित उन्नत भारत उनके सपनों और संकल्पों की घुरी था। अपने सपनों और संकल्पों को ज़मीन पर उतारने के लिए उन्होंने कई सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाओं, ट्रेड यूनियनों-किसान-युवा-छात्र एवं तानाशाही व सांप्रदायिकता विरोधी जन-अधकार संगठनों में स्वयं को खपा कर काम किया और देश भर में अपने सह-विचारकों, सह-कर्मियों, मित्रों व शुभ-चिंतकों का एक विशाल कारवां तैयार किया। उन्होंने कहा कि नाटक के मोर्चे पर उनकी जलाई इस मशाल को कोटा में आशीष मोदी, कपिल सिद्धार्थ, पवन कुमार, अज़हर अली और अनाम के अन्य नौजवान साथियों ने जलाए रखने तथा उनके संकल्पों तथा कार्यों को आगे बढ़ाने का जो संकल्प लिया है और उसे चरितार्थ कर रहे हैं वही उनके प्रति एक सच्ची साथियाना श्रृद्धांजलि है।

कार्यक्रम की शुरुआत में शिवराम द्वारा लिखित गीतों और दोहों को कोटा के ही वरिष्ठ गीतकार एवं संगीतज्ञ शरद तैलंग ने संगीतबद्ध स्वर प्रदान कर उनके प्रभाव को अधिक मार्मिक बना कर प्रस्तुत किया। डॉ.राजश्री गोहटकर ने भी गीत प्रस्तुत किये।

अनाम के साथियों ने इस बार अपनी प्रस्तुति के लिए प्रबोध जोशी के नाटक ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ को चुना। आज की परिस्थितियों में जबकि साम्प्रदायिक और विघटनकारी शक्तियां उभार पर हैं और समाज में नकारात्मक परिदृश्य रचना चाहती हैं, ऐसे में यह नाटक और अधिक मौजूं बनकर सामने आता है। आज़ादी के समय के विभाजन की पृष्ठभूमि में एक पागलखाने पर इसके असरों की पड़ताल के जरिए यह नाटक विभाजन का, सांप्रदायिक और विघटनकारी मूल्यों का मखौल उड़ाता है और साम्प्रदायिक सौहार्द और एकता के नये तर्क गढ़ता है।

इस नाटक में एक पागलखाने में विभिन्न प्रतीकात्मक चरित्र हैं जो अपनी सामान्य पर विशिष्ट दिनचर्याओं में हैं। विभाजन के वक़्त पागलों की भी अदला-बदली का एक आदेश पागलखाने में हड़कंप मचा देता है और शुरुआत होती है नाटकीयताओं से भरपूर दृश्यों की जिनमें डूबते-उतरते दर्शक सभ्य-समाज के साम्प्रदायिक एवं विघटनकारी जैसे पागलपनें के मूल्यों के मखौल और पागलों के सहज मानवतावादी सौहार्द के मूल्यों के साथ अपने को एकाकार करते जाते हैं। कोटा के ही प्रमुख नाट्य-निर्देशक ललित कपूर के सधे हुए निर्देशन में इस नाटक की कोलाज़मयी प्रस्तुति और भी प्रभावशाली हो गई थी जिसको दर्शकों ने भी भरपूर सराहा।

ईश्वर और अल्लाह की मुख्य चरित्र भूमिकाओं में आशीष मोदी और अज़हर अली ने अपने मार्मिक अभिनय द्वारा दर्शकों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। सुपरिटेण्डेंट की भूमिका में डॉ.पवन कुमार स्वर्णकार, अनामी की भूमिका में राजेश शर्मा (आकाश), विनोद की भूमिका में राजकुमार चौहान, आइजैक की भूमिका में अभियंक व्यास तथा युवती की भूमिका में राजकुमारी ने अपने सराहनीय अभिनय के द्वारा दर्शकों की खूब दाद पाई। संगीत की कमान मनीष सोनी और मोहन सिंह ने संभाली। मैकअप व मंच की अन्य व्यवस्थाएं रोहित पुरुषोत्तम, शिवकुमार एवं रवि कुमार के हाथों में थी।

इस अवसर पर ही अर्जुन कवि स्मृति संस्थान ( राजस्थान ) द्वारा शिवराम को उनके साहित्य एवं रंगकर्म के क्षेत्र में दिये गये विशिष्ट सृजनात्मक योगदान के लिए निधन उपरांत ‘अर्जुन कवि जनवाणी सम्मान’ से सम्मानित भी किया गया। यह सम्मान शिवराम की मां कलावती देवी और पत्नी सोमवती देवी ने ग्रहण किया।

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रवि कुमार

अनुभवी पिता की सीख – शिवराम

सामान्य

अनुभवी पिता की सीख

रेखाचित्र - रवि कुमार, रावतभाटा

एक चुप्पी
हजार बलाओं को टालती है
चुप रहना सीख
सच बोलने का ठेका
तूने ही नहीं ले रखा है

दुनिया के फटे में टांग अडाने की
क्या पडी है तुझे
मीन मेख मत निकाल
जैसे और निकाल रहे हैं
तू भी अपना काम निकाल

जैसा भी है
यहां का तो यही दस्तूर है
ये नैतिकता-फैतिकता का चक्कर छोड़
सब चरित्रवान भूखों मरते हैं
कोई धन्धा पकड़
एक के दो, दो के चार बना
सिद्वान्त और आदर्श नहीं चलते यहां
ये व्यवहार की दुनिया है
व्यावहारिकता सीख
अपनी जेब में चार पैसे कैसे आएं
इस पर नजर रख

‘‘मतलब पड़ने पर
गधे को भी बाप बनाना पड़ता है’’
यह कहावत अब पुरानी पड़ गई है
अब कोई गधा बाप बनना पसन्द नहीं करता
आजन्म कुंवारा रहता है
जिन्दगी को भोगता है
बाप का तमगा लिए नहीं फिरता है
इसलिए मतलब पड़ने पर
अब गधे को बाप नहीं
किसी सभा का अध्यक्ष बनाया जाता है
और बताया जाता है
कि ऐसे महापुरूष धरती पर कभी-कभी ही
अवतरित होते हैं
तू भी यह करना सीख

अक्ल का दुश्मन मत बन
ये दीन-दुनिया, देश और समाज के गीत गाना छोड़
किसी बड़े आदमी की दुम पकड़
बड़ा आदमी बन
तेरे भी दुम होगी
दुमदार होगा तो दमदार भी होगा
दुम होगी तो दुम उठाने वाले भी होंगे
रुतबा होगा
कार-कोठी-बंगले भी होंगे
इसीलिए कहता हूं
ऐरों-गैरों नत्थूखैरों को मुँह मत लगा

जो सुख चावे जीव कू तो भौंदू बन के रह
हिम्मत और सूझबूझ से काम ले
और भगवान पर भरोसा रख

शिवराम

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प्रस्तुति – रवि कुमार

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – अंतिम भाग

सामान्य

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – अंतिम भाग
शिवराम

( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है अंतिम भाग. )

देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति : पहला भाग, दूसरा भाग, तीसरा भाग

उच्च स्तरीय वैश्विक संस्कृति का निर्माण दुनिया के समाजवादी वैश्वीकरण के भविष्य की कोख में पल रहा है। और उसके लिए जरूरी है कि विभिन्न मानव सभ्यताओं द्वारा अर्जित सांस्कृतिक श्रेष्ठ की, ज्ञान-विज्ञान के श्रेष्ठ की, इतिहास की हिफाजत की जाए। वही उच्च कोटि की मानवीय समाजवादी वैश्विक संस्कृति का आधार बनेंगे। हजारों फूलों के बीजों को बचाया जाए ताकि भविष्य के बगीचे में हजारों फूल अपने रंगों और रूपों की छटा बिखेरते हुए साथ-साथ महकें-दमकें। समाजवादी निर्माण के प्रयत्नों में मिली पराजय और विफलताएं घोर निराशा का कारण नहीं होनी चाहिएं। दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन, एक शोषण विहीन संस्कृति का निर्माण, एक नये समाजवादी जनतांत्रिक मनुष्य का निर्माण जो हर प्रकार के व्यक्तिवाद से मुक्त हो, एक झटके में ही सम्भव नहीं हो जाएगा। असफलताओं और पराजयों की श्रृंखला को पार करके ही निर्णायक सफलताएं और विजय हासिल होती हैं।

विचारधारा और दर्शन के क्षेत्र में वह एक ओर तो ‘विचारधारा के अंत’ की घोषणा करता है दूसरी ओर ‘उत्तर आधुनिकतावाद’ और ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की विचारधारा लेकर आता है। वह मार्क्सवाद को भी वि्कृत करता है। वह वैश्वीकरण-उदारीकरण- निजीकरण और एक ध्रुवीय दुनिया की विचारधारा लेकर आता है। वह साम्राज्यवाद की विकल्पहीनता ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ लेकर आता है। वह सामाजिक अनुशासनों को ध्वस्त करने और समाज विरोधी व्यक्तिवादी स्वच्छंदता का विचार लेकर आता है। वह निष्कर्ष विहीन अनन्त विमर्श की विचारधारा लेकर आता है। कुल मिलाकर वह विचारधारा के क्षेत्र में संभ्रमों और विभ्रमों की दुनिया रचता है। विचार शून्यता और चिन्तनहीनता की स्थिति पैदा करता है। वास्तविकता को भ्रम और भ्रम को वास्तविक बनाकर पेश करने की विचारधारा लेकर आता है। वह ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा करता है और ‘फुनगियों की ओर बढ़ने’ का नहीं ‘जड़ों की ओर लौटने’ का आह्नान करता है। अतीतोन्मुखता को जगाता है, अज्ञान, अंधविश्वास और धर्म के पाखण्ड में आस्था जगाता है। उसकी समस्त विचारधाराएं, सभी दर्शन, दुनिया की हजारों साल में अर्जित संस्कृति के श्रेष्ठ को विकृत करने की जंग छेड़े हुए है।

वह धर्मों और नस्लों के बीच विग्रह, विघटन, दंगे और युद्ध छेड़ने के षड़यंत्र रचता है। सभ्यताओं के संघर्ष का हटिंगटन का दर्शन विभिन्न संस्कृतियों को परस्पर युद्धरत करने का विध्वंसक दर्शन है। वह मानव अधिकारों की बात करता है लेकिन मानवता के विरूद्ध पतन की सभी सीमाओं को लांघ जाता है। वह मानव अंगों के अमानवीय अपहरण और व्यापार तक ही सीमित नहीं रहता, नर मांस भक्षण, नर शिशु मांस भक्षण और नर भ्रूण मांस भक्षण के स्वादों के भोग तक जाता है। मनुष्य के उत्कृष्ट सौन्दर्यबोध को ध्वस्त कर, निकृष्ट भोग बोध जगाता है। मूल्यविहीन संवेदनहीन भोगवादी मानसिकता ही उसके लिए उपभोक्ता समाज का निर्माण करेगी। साम्राज्यवादी संस्कृति, संस्कृति का नहीं विकृतियों का संसार रच रही है। कलाओं की दुनिया में वह अनुभव, विचार, मूल्य, संवेदना और ज्ञान को विस्थापित करने को प्रवृत्त होती है। वह तकनीक, सूचना, शिल्प-कौशल, भाषाई चमत्कार, अर्थहीनता, कोरी काल्पनिकता और निरर्थक अमूर्तन की दिशा में प्रवृत्त करती है। सामाजिक यथार्थ और ज्ञानात्मक संवेदना तथा संवेदनात्मक ज्ञान को हतोत्साहित, उपहासित और तिरस्कृत करती है।

रेखाचित्र - रवि कुमार, रावतभाटासाम्राज्यवादी संस्कृति, साहित्य और कलाकर्म को व्यापारिक और बाजारवादी दृष्टिकोण से युक्त करती है। बाजार यानी तिकड़म, विज्ञापन कौशल, लाभ- हानि का गणित। रूपवाद और कलावाद तो पहले भी थे, अब वह ऐसे रूपवाद को पोषित करती है जो घटिया वस्तु तत्व के भी बढि़या होने का भ्रम पैदा करे। रचना-रूप से भी ज्यादा महत्वपूर्ण अब पैकिंग और प्रस्तुति का रूप है। पैकिंग का सौन्दर्य, पैकिंग का शिल्प, पैकिंग का रूप विधान। इस सबके ऊपर माल खपाने और लाभ कमाने का कौशल। ज्ञान, साहित्य और कलाओं को लोक से, जन साधारण से विलग करती है। साम्राज्यवादी संस्कृति कलाकर्मियों को सम्पादकों-प्रकाशकों को टैकल करने की कला सिखाती है। पुरस्कार प्रदाताओं और सम्मानदाताओं से सम्मान प्राप्त करने, खरीदने के गुर सिखाती है। कला कर्म का उद्देश्य धनार्जन और यशार्जन है, यह सिखाती है। सामाजिक दायित्व बोध मूर्खता है,  उसका उपहास-तिरस्कार करती है।

यह गौर करने योग्य बात है कि आजकल दूरदर्शन चैनलों पर अधिकतर मुख्य कार्यक्रम उबाऊ, निरर्थक और फालतू लगते हैं, कलाहीन और सौन्दर्यविहीन, लेकिन ‘एड’ यानी विज्ञापन कितने कलात्मक आ रहे हैं। सारी कलाएं, क्या अभिनय, क्या संगीत, सब विज्ञापन के लिए समर्पित। विज्ञापन जो झूठ की चित्ताकर्षक प्रस्तुति होती है। स्त्री देह के उत्तेजक उभार, उसकी नग्नता, तक ही बात नहीं है। विकसित और साम्राज्यवादी जगत में पोर्न, ब्लू फिल्में आम हो गई हैं। इंगलैंड की एक सर्वे रिपोर्ट है कि वहां 98 प्रतिशत महिलाएं पोर्न और ब्लू फिल्में देखती हैं ( पुरुषों की तो बात छोडि़ए ), चौंकाने वाली ही नहीं डराने वाली भी है। यह है साम्राज्यवादी संस्कृति और उसकी महानता, जिसके नशें में हमारा अभिजन समाज डूबा जा रहा है।

शिक्षा संस्कृति का मुख्य आधार है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शिक्षा नीति से खूब परिचित हैं कैसे उस शिक्षा पद्धति ने हमारे समाज की मानसिकता को उपनिवेशीकृत किया। सामंती युग में हमने देखा उनकी शिक्षा पद्धति ने कैसे लोगों में सामंती शोषण और वर्णव्यवस्था के दिल दहलाने वाले अत्याचारों को सहने के अनुकूल मानसिकता बनाई गई। आज भी पिछले जन्मों के कर्मफल में उसका विश्वास टूटा नहीं है। वह सामंती-पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न को ईश्वर का विधान और पिछले जन्म के कर्मों का फल मानकर और अगले जन्म को सुखी बनाने के लिए सहता रहता है। उसकी इस विकट सहनशीलता को देखकर कठोर हृदयी मनुष्य की भी संवेदना जाग जाती है, उसकी करूणा द्रवित हो उठती है। वह उनके पक्ष में सोचने लगता है। लेकिन शोषित-पीडि़त जन सहर्ष सब सहे जा रहे हैं। भाग्य का विधान ही ऐसा है। साम्राज्यवादी संस्कृति भी ऐसी शिक्षा पद्धति का प्रसार करती है।

हैरी कैली, दि मॉडर्न स्कूल इन रिट्रास्पेक्ट ( 1925 ) में कहते हैं – ‘‘सार्वजनिक विद्यालय प्रणाली व वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को स्थायी बनाने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है…बच्चे को शिक्षा दी जाती है ताकि वह सत्ता के नीचे झुके, दूसरों की इच्छा के अनुसार काम करने की आदत डाले, फलतः उसके मन की कुछ ऐसी आदतें बन जाती हैं, जिनका उसके वयस्क जीवन में शासक वर्ग पूरा लाभ उठाता है।’’ मार्टिन कारनाय की पुस्तक ‘‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और शिक्षा’’ ( अनुवादक कृष्णकांत मिश्र ) इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। मार्टिन कारनाय कहते है कि – ‘‘पश्चिमी तर्ज की औपचारिक शिक्षा अधिकांश देशों में मुक्ति का साधन न बन कर केवल साम्राज्यवादी प्रभुत्व का उपकरण बनी। यह शिक्षा साम्राज्यवाद के लक्ष्यों के अनुरूप थी….’’, वे आगे कहते हैं – ‘‘हमारा विश्वास है कि ज्ञान का भी उपनिवेशीकरण किया गया। उपनिवेशीकृत ज्ञान समाज के सोपानात्मक ढांचे को स्थाई बनाता है।’’

सुसांत गुणतिलक की पुस्तक ‘‘पंगु मस्तिष्क – शिक्षा पर औपनिवेशिक संस्कृति का दबाव’’ ( अनुवाद – स्वयं प्रकाश ) इस विषय पर एक और महत्वपूर्ण शोधपूर्ण पुस्तक है। सुसांत गुणतिलक पुस्तक की भूमिका में कहते है – ‘‘आम तौर पर व्यापारिक, औद्योगिक और मौजूदा नव औपनिवेशक रूपों में प्रकट होने वाले विभिन्न आर्थिक हमलों के माध्यम से पिछले पांच सौ वर्षों के यूरोपीय विस्तार ने प्रायः सारी दुनिया को सांस्कृतिक स्तर पर लगभग पूरी तरह आच्छादित कर लिया है। इस सांस्कृतिक एकछत्रता ने स्थानीय संस्कृति, स्थानीय कलाओं तथा वैध और प्रासंगिक विज्ञानों की स्थानीय प्रणालियों का दमन किया है और इसका परिणाम एक वास्तविक सांस्कृतिक आनुवंशिक सफाए के रूप में सामने आया है। यूरोपीय संस्कृति का आधिपत्य बढ़ने के साथ ही विविधता और मौलिकता, कलाएं और गैर यूरोपीय मूल के विचार गायब हैं। संस्कृति आवेष्टित हो रही है और सुगम्य रूपों में परोसी जा रही है।’’ वे इस पुस्तक में ‘सांस्कृतिक एकछत्रता की छानबीन’ करते हैं। ‘औपनिवेशिक विश्व की स्थापना से पहले यूरोप के बाहर की सांस्कृतिक दुनिया की छानबीन’ करते हैं। ‘औपनिवेशिक संस्कृति के वाहक के रूप में प्रविधि की भूमिका की शिनाख्त करते हैं और ‘सांस्कृतिक स्तर पर उपनिवेशीकृत राष्ट्रों के कपट प्रबंध’ की पहचान कराते हैं।

वर्तमान में औद्योगिक प्रबंधन और उच्च सूचना तकनीक की शिक्षा का अभियान अपने लिए उपयोगी कार्मिकों की भीड़ खड़ी करने का एक ऐसा ही अभियान है। वे अलगाव, असंलग्नता, तटस्थता और सहनशीलता सिखाती है। मनुष्य के स्व-विवेक और स्व-निर्णय की प्रवृत्ति को समाप्त करती है। उसे विचारहीन संस्कृतिविहीन बनाती है। साम्राज्यवादी संस्कृति हमारे बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का उपनिवेशीकरण करती है। सवाल सिर्फ यही नहीं है कि हमारी संस्कृति को हम साम्राज्यवादी संस्कृति द्वारा किए जा रहे ध्वंस से कैसे बचाएं? सवाल यह भी है कि हम हमारी संस्कृति को साम्राज्यवादी संस्कृति बनाये जाने और उसे दूसरी नस्लों या जातीयताओं की संस्कृति को नष्ट करने के उपकरण बनाए जाने से भी कैसे बचाएं?

मानव समाज, कबीलाई जन संस्कृतियों से शुरु होकर जनपदीय, जातीय और बहुराष्ट्रीय जातीय अवस्थाओं से गुजरता हुआ अब वैश्विक संस्कृति की ओर अग्रसर है। यह मानव समाज, विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसे रोका नहीं जा सकता। देखना यह है कि साम्राज्यवादी वर्चस्व के अंतर्गत वैश्विक संस्कृति और विश्व समाज अथवा समाजवादी-जनवादी वैश्विक संस्कृति और वैश्विक समाज।

साम्राज्यवादी पूंजीवाद राष्ट्र राज्यों, जातीय संस्कृतियों और विभिन्न भाषाओं को कुचलता हुआ एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने में लगा है जिसकी संस्कृति शोषण-उत्पीड़न-विस्थापन पर आधारित एक गैर जनतांत्रिक, अमानवीय, अपसंस्कृति होगी। भोगवाद और वर्चस्ववाद जिसकी मुख्य प्रवृत्ति होंगी। वित्तीय पूंजी के वर्चस्व तले एक गुलाम दुनिया। अनिश्चय और असुरक्षा के आतंक के साये में जीती तनावग्रस्त सभ्यताएं। हिंसा-नशा-भोग, संवेदनहीनता-असहिष्णुता-अलगाव। युद्ध और आतंक। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण एक उच्च विकासशील वैश्विक संस्कृति की ओर अग्रसर नहीं है बल्कि एक पतनशील और संकीर्ण वैश्विक अपसंस्कृति की ओर अग्रसर है। एक स्वस्थ समृद्ध उन्नतशील उच्च मानवीय वैश्विक संस्कृति वैश्विक समाजवादी व्यवस्था के अंतर्गत स्वरूप ग्रहण करेगी। एक शोषण विहीन समतावादी वैश्विक व्यवस्था में ही यह सम्भव होगा।

विविध संस्कृतियों को विस्थापित और विखण्डित कर वर्चस्ववादी एकरूपता स्थापित करती हुई वैश्विक संस्कृति नहीं, बल्कि ऐसी वैश्विक संस्कृति जो विविध संस्कृतियों का संघबद्ध समाजवादी जनवादी गुलदस्ता हो, होना चाहिए।
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( समाप्त )

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आलेख – जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – शिवराम

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jansanskrutiyan aur samrajyavadi sanskruti– shivaram.pdf

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आलेख – शिवराम

shivram - sketch by ravi kumar, rawatbhata

शिवराम - २३ दिसंबर, १९४९ - १ अक्टूबर, २०१०

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प्रस्तुति – रवि कुमार

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – तीसरा भाग

सामान्य

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – तीसरा भाग
शिवराम

( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है तीसरा भाग. )

देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति : पहला भाग, दूसरा भाग

हिन्दी भाषा और हिन्दी जातीयता के प्रभुतावादी व्यवहार का भय फैलाए जाने ने भारत की विभिन्न जातीयताओं के एक संघीय बहुराष्ट्रीय आधुनिक महाजाति के निर्माण में भारी बाधा पहुंचाई है। ‘हिन्दु राष्ट्रवाद’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का उसका चिन्तन साम्राज्यवादी चिन्तनधारा का ही विष बीज है। जो हिन्दु-मुस्लिम धार्मिक अंतर्विरोधों और भारतीय जातीयताओं के बीच अविश्वसनीयता और संदेह को तीव्र कर साम्राज्यवाद की ही मदद करता है। यह भारतीय शासकों के फासीवादी-साम्राज्यवादी भविष्योन्मुखी मंतव्यों की भी अभिव्यक्ति है। राज्यों के साथ भेदभाव और उनके असमान विकास ने इस ऐतिहासिक दायित्व के पूरा होने में दूसरी बड़ी बाधा खड़ी की है। शासक वर्गों द्वारा संघीय गणराज्य के अंतर्गत राज्यों के जनतांत्रिक अधिकारों के दमन ने इस कार्य में तीसरी बड़ी बाधा उत्पन्न की है। क्षेत्रिय राजनैतिक दलों का उदय इन्हीं परिस्थितियों की उपज है। शासक वर्गों की सुकेन्द्रित संघीय राज्य सत्ता निरंतर क्षीण हुई है। इन स्थितियों ने भी साम्राज्यवाद के आर्थिक राजनैतिक षड़यंत्रों और साम्राज्यवादी अपसंस्कृति के प्रसार के लिए उपजाऊ जमीन बनाई है।

हमें साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण को अलग-अलग जनपदीय संस्कृतियों के बरअक्स अलग-अलग रूपों के साथ संघबद्ध बहुराष्ट्रीय महाजातीयता के बरअक्स भी देखना चाहिए और साथ में यह भी देखना चाहिए कि राष्ट्रीय संघबद्ध महाजातीयताओं के अंतर्विरोधों का साम्राज्यवादी संस्कृति कैसे अपने हित में उपयोग करती हैं और उसकी अलग-अलग राष्ट्रीय जातीयताओं और जनपदों की संस्कृति के बरअक्स क्या व्यवहार करती है। विखंडनवादी नजरिया भी तो साम्राज्यवादी संस्कृति का ही एक नजरिया है, जिसका वह उपयोग कर रही है।

हमें देखना चाहिए कि हमारे छोटे-छोटे जनपद अलग-अलग रूप से साम्राज्यवादी संस्कृति के आक्रमण का मुकाबला नहीं कर सकते। यदि साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण का मुकाबला करना है तो हमें हमारी बहुराष्ट्रीय संघबद्ध महाजातीयता को एकताबद्ध करना होगा। हिन्दी भाषी जातीयता को भी जनपदों और राज्यों की भौगोलिक सीमा से ऊपर उठकर एकताबद्ध होना होगा। हिन्दी जातीयता को प्रभुतावादी सामंती मानसिकता से बाहर निकालना होगा। हिन्दी जातीयता को अन्य भारतीय जातीयताओं में जनतांत्रिक व्यवहार का विश्वास जगाना होगा। यह वास्तविकता है कि वह भारत की बहुराष्ट्रीय संघबद्ध महाजाति की सबसे बड़ी जातीयता है और अतीत में तथा वर्तमान में भी उसने ही साम्राज्यवादी राजनैतिक-सांस्कृतिक आक्रमणों को सर्वाधिक झेला है। भविष्य में भी उसे ही झेलने होंगे। हिन्दी भाषी जातीयता का यह ऐतिहासिक दायित्व है कि वह साम्राज्यवादी उपनिवेशीकरण के इस दौर के आक्रमण के विरूद्ध जिम्मेदार भूमिका निभाए।

यह उसी का दायित्व था और आज भी यह उसी का दायित्व है कि वह भारत की समस्त जातीयताओं की वृहद बहुराष्ट्रीय संघबद्ध महाजाति के निर्माण प्रक्रिया को आगे बढ़ाए और पूरा करे। यह प्रभुत्ववादी दृष्टिकोण और आचरण से नहीं जनतांत्रिक संघवादी आचरण से ही सम्भव है। इसलिए विभिन्न हिन्दी भाषी प्रदेशों और जनपदों के बीच यह दायित्व बोध जागृत होना चाहिए। यही दायित्व बोध उन्हें एकता के रास्ते पर ले जाएगा। धर्म और भाषा की साम्प्रदायिकता को केन्द्र में लाया जाना मतभेदों को तीव्र करना है।

व्यवहार में जन साधारण के बीच, श्रमजीवी समाज के बीच, व्यवसायियों-व्यापारियों के बीच हिन्दी का प्रयोग निरंतर व्यापक हो रहा है। वह विभिन्न जातीयताओं के बीच सम्पर्क भाषा के रूप में किसी भी अन्य भारतीय भाषा की तुलना में अधिक स्वीकार्य हुई है। हिन्दी जातीयता की प्रभुत्ववादी आशंकाओं के कारण अन्य भारतीय जातीयताएं राज-काज और सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का पक्ष ग्रहण करती हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी विभिन्न भारतीय जातीयताओं के अभिजन समाज की ही सम्पर्क भाषा है। ज्यादा से ज्यादा थोड़ा बहुत मध्य वर्ग के ऊपरी संस्तरों तक उसका प्रसार माना जा सकता है। अंग्रेजी की इस स्थिति ने भारत में एक मार्शल समाज का निर्माण जरूर कर दिया है जिसके लिए राज-काज के प्रमुख पद आरक्षित हैं।

साम्राज्यवादी संस्कृति के वर्तमान दौर के लिए भारत की यह भाषाई स्थिति बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है। उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण और अत्यधिक महंगी होने के कारण वह उच्च मध्य वर्ग और अभिजन समाज के लिए आरिक्षत हो गई है। इस स्थिति ने भारतीय समाज में एक अलग तरह का भाषाई और सांस्कृतिक विभाजन उपस्थित कर दिया है जिसका वर्गीय स्वरूप भी है।

साम्राज्यवाद का आर्थिक आक्रमण मुख्य रूप से अभी श्रमजीवी जनगण के विरूद्ध केन्द्रित है। मजदूर और किसान तथा उनकी युवा पीढ़ी इस आक्रमण से तबाह हो रहे हैं। जबकि मध्य वर्ग के ऊपरी संस्तर और अभिजन समाज, साम्राज्यवादी लूट का एक हिस्सा प्राप्त करके खुशहाल हो रहा है। यही नव औपनिवेशिक विकास है। यही ‘भारत के महाशक्ति बनने’ का अनोखा भ्रम है।

साम्राज्यवादी संस्कृति अपने रंगरूट इसी वर्ग से भर्ती करती है। साम्राज्यवाद द्वारा संचालित एन.जी.ओ.’ज इन्हीं रंगरूटों के माध्यम से मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के आदर्शवादी मानवीय मन वाले प्रतिभाशाली बेरोजगार युवक-युवतियों को अपनी सेवा में लगा रहे हैं। उनकी श्रमजीवी जनगण के पक्ष में वास्तविक सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया को भंग करके उन्हें आभासी कार्यकर्ता बना कर छोड़ देते हैं। नव धनाढ्य उच्च और मध्य वर्ग उसकी भोगवादी उपभोक्ता संस्कृति और बाजारवादी संस्कृति का वाहक है।

एन.जी.ओ.’ज केन्द्रीय मुद्दों पर छिड़ने वाले वर्ग संघर्षों को हाशिए पर डालने और अन्य मुद्दों को केन्द्र में लाने की भूमिका अदा करते हैं जैसे साक्षरता, पर्यावरण, स्वास्थ्य आदि। वे शिक्षा, साम्प्रदायिक सद्भाव, आदिवासी विस्थापन, बाल श्रम और असंगठित श्रमिकों के लिए भी काम करते दिखाई देते हैं। यह भी आभासी संघर्ष, आभासी अभियान होते हैं। जिनका ‘डॉक्यूमेन्टेशन’ बड़ा प्रभावशाली होता है लेकिन जिनके काम और प्रभाव डॉक्यूमेन्टेशन लायक भी महत्वपूर्ण नहीं होते। वास्तविकता का आभासी से विस्थापन भी साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण का एक हथियार है। गौर से देखा जाए तो उनका यह मानवीय व्यवहार उपभोक्तावादी समाज के विस्तार का ही साम्राज्यवादी उपक्रम है।

वे जन-आंदोलनों के गैर-राजनीतिक रहने का दर्शन गढ़ते हैं और जनांदोलनों के क्रांतिकारी राजनीति से अलगाव हेतु सायास प्रयत्न करते हैं। वे संसदीय राजनीति से मोह भंग को एक ऐसे राजनीतिक शून्य में बदलने की कोशिश करते हैं जिसका कोई क्रांतिकारी विकल्प सम्भव नहीं दिखाई दे। क्रांतिकारी विचारधारा को सुधारवादी विचारधारा के विभ्रमों से युक्त करना और क्रांतिकारी शक्तियों को सुधारवादी सक्रियता में लिप्त कर देना भी साम्राज्यवादी संस्कृति की रणनीति है, जिसे वह अनेक विचारधारात्मक विमर्शों के जरिये अंजाम दे रही है। नव मार्क्सवाद, उत्तर आधुनिकतावाद, विखंडनवाद आदि उसके ऐसे ही विमर्श हैं। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी धार का लगातार भोंथरे होते जाना और उसमें संसदीय वामपंथी-सामाजिक जनवादी प्रवृत्तियों का विस्तार, जो स्वयं को विद्यमान साम्राज्यवादपरस्त पूंजीवादी व्यवस्था का बेहतर प्रबंधक सिद्ध करने को लालायित दिखाई देते हैं, इस तथ्य का द्योतक है कि साम्राज्यवादी रणनीति किस तरह प्रभावी हो रही है।

जिस प्रकार विमर्शवाद निष्कर्षविहीन अनन्त विमर्श की संस्कृति पैदा करता है और मुक्ति संघर्षों के चिंतन को विस्थापित करता है। वैसे ही एन.जी.ओ. संस्कृति क्रांतिकारी चेतना से पूर्णतया मुक्त गैर राजनैतिक यथास्थितिवादी-सुधारवादी-आभासी जनआंदोलनों की संस्कृति पैदा करती है। दलित मुक्ति, नारी मुक्ति, आदिवासी मुक्ति के संघर्षों को नपुंसक विमर्शों में बदला जा रहा है, वर्गीय विमर्शों को विस्थापित किया जा रहा है और हमारी अनेक प्रगतिशील, जनवादी पत्रिकाएं भी इसमें लिप्त हो गई हैं।

साम्राज्यवादी संस्कृति के आक्रमण की रणनीति को समझने के लिए कार्ल मार्क्स और नोम चोमस्की के निम्नांकित दो उद्धरण गौरतलब है – ‘‘पूंजीवादी सभ्यता की आंतरिक बर्बरता और उसकी गहरी धूर्तता हमारी आंखों के सामने खुली पड़ी है। अपने घर में वह अच्छे रूप धारण कर लेती है, उपनिवेशों में वह नंगी होकर घूमती है।’’ – कार्ल मार्क्स। यह मार्क्स ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 पर अपनी प्रतिक्रिया ‘दी फर्स्ट इण्डियन वार ऑफ इन्डिपिन्डेंस’ में कहा था। आज का साम्राज्यवाद तो तब के साम्राज्यवाद से कहीं अधिक कुटिल और क्रूर है। ‘‘अमेरिका अपना साम्राज्य उसी ढंग से फैलाना चाहता है जिस ढंग से कभी उसने अमेरिका को बसाते समय अमेरिका के लाखों मूल निवासियों को मौत की नींद में सुला दिया था।’’ – नोम चोमस्की। नोम चोमस्की का यह बयान वर्तमान साम्राज्यवाद की बर्बरता को लक्षित करता है।

लेकिन उस दौर के साम्राज्यवाद और वर्तमान साम्राज्यवाद की अंतर्वस्तु में पूंजीवादी होते हुए भी काफी भिन्नताएं है। पहले वह दुनिया का बंटवारा करने के लिए संघर्षरत-युद्धरत हुआ था अब वह एकध्रुवीय होकर सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने को संघर्षरत-यु्द्धरत है। पहले वह राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करता आता था। उपनिवेशों की जनता को साफ दिखाई देता था कि किसी ने उन्हें गुलाम बना लिया है। अब वह पहले आर्थिक आधिपत्य जमाता है, साथ में सांस्कृतिक वर्चस्व का अभियान छेड़ता है, परोक्ष राजनैतिक आधिपत्य बाद में जमाता है। अब उसके पास सूचना तंत्र का सांस्कृतिक महाआयुध है जो पहले नहीं था। पहले भी वह वित्तीय पूंजी का ध्वजाधारी था अब भी वह वित्तीय पूंजी का ध्वजाधारी है, लेकिन वित्तीय पूंजी का चरित्र अब पहले से काफी बदल गया है। अब वह अनुत्पादक सटोरिया जुआरी वित्तीय पूंजी अधिक है, उत्पादक कम। वह प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन और बाजार, तीनों का दोहन पहले भी करती थी, अब भी करती है। परन्तु अब वह बहुत अधिक तीव्र है।

अब वह मरणासन्न अवस्था के अंतिम चरण में है उसके पास मानव सभ्यता को देने के लिए बर्बरता, तबाही और युद्ध के सिवाय कुछ भी नहीं बचा है। वह अब तक जन्मे सभी निकृष्ट और पतित मूल्यों-आचरणों का वाहक बन गया है। प्रगतिशलीलता के नाम पर अब उसके पास कुछ भी शेष नहीं है। पहले वह ‘फासीवाद’ की विचारधारा के साथ आया था, अब भी वह फासीवाद के सारतत्व को अमली जामा पहना रहा है, लेकिन और अधिक क्रूरता और बर्बरता के साथ। नस्लों को कुचलता, राष्ट्रीय राज्यों की सम्प्रभुता को नेस्तनाबूत करता और उन्हें गुलाम बनाता, मजदूर वर्ग को अधिकार विहीन गुलाम बनाता, विभिन्न सभ्यताओं के बीच संघर्ष फैलाता। उसने दुनिया को आतंकवाद का तोहफा दिया है। जो उसके विरूद्ध लड़ता हुआ दिखता है लेकिन जो उसके लक्ष्यों में उसका मददगार साबित होता है।

सामंती साम्राज्यवादी संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों के साथ वर्चस्ववादी व्यवहार करती थी लेकिन पूंजीवादी साम्राज्यवादी संस्कृति का व्यवहार अधिक आक्रामक, विघटनकारी और विनाशकारी है। सामंती साम्राज्यवाद का लक्ष्य जनपदीय संस्कृतियों को लघु जातीय संस्कृति और लघु जातीय संस्कृतियों को राष्ट्रीय जातीय संस्कृतियों में विकसित करना था। इसलिए वह अन्य संस्कृतियों को नष्ट नहीं करता था बल्कि उनके श्रेष्ठ को संजोता था और कुल मिलाकर एक बड़ी-व्यापक उच्च स्तरीय संस्कृति का निर्माण करता था। पूंजीवादी साम्राज्यवाद उच्च स्तरीय वैश्विक संस्कृति के निर्माण के लिए बिल्कुल प्रस्तुत नहीं होता। वह अपनी भोगवादी पतनशील संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करने और अन्य राष्ट्रीय जातीयताओं की संस्कृति के विखण्डन और विनाश के लिए उद्धत होता है। संस्कृति को मुनाफे के लिए व्यापार की एक वस्तु बना देता है। साम्राज्यवादी संस्कृति, दुनिया की सांस्कृतिक विविधता को नष्ट कर देने को उद्धत है। वह उसे वि्कृत और विस्थापित करने को उद्धत है।

( अगली बार – लगातार – अंतिम भाग )

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आलेख – शिवराम
प्रस्तुति – रवि कुमार

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – दूसरा भाग

सामान्य

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – दूसरा भाग
शिवराम

( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है दूसरा भाग. )

देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति : पहला भाग

अब जब दुनिया अमेरिकन साम्राज्यवाद के आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक हमले की चपेट में है और भारत भी इस हमले का शिकार है, हमें समझना चाहिए कि भारत एकताबद्ध राष्ट्र राज्य के रूप में ही पूंजीवादी साम्राज्यवाद के वर्तमान हमले का मुकाबला कर सकता है। शासक वर्ग इस एकता के प्रति बेहद लापरवाह है। भाषावार राज्यों का गठन हुआ और राष्ट्रीय राज्य में गणसंघीय स्वरूप को संवैधानिक मान्यता भी दी गई लेकिन विभिन्न जातीयताओं और भाषाओं के साथ भेदभाव रहित न्याय नहीं किया गया। शासक वर्ग अपने राजनैतिक नियंत्रण और आर्थिक लाभ के अनुरूप भेदभावपूर्ण नीतियां अपनाता रहा।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर साम्प्रदायिक फासीवाद ने धार्मिक आधार पर सामाजिक अलगाव को चिन्ताजनक स्थिति में पहुंचा दिया है। राज्य सरकारों को विदेशी साम्राज्यवादी सरकारों और साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से सीधे समझौते करने और अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थाओं से सीधे ऋण लेने की छूट सुकेन्द्रित राष्ट्र राज्य को कमजोर ही नहीं करता, साम्राज्यवाद को हमारे जातीय अंतविरोधों को बढ़ाने का अवसर भी प्रदान करता है। भारतीय शासक पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ बनाए हुए है और वह उसे आगे बढ़ा रहा है। विभिन्न जातीयताओं के साथ भेदभाव और उनकी सांस्कृतिक पहचान तथा विकास की चिन्ताओं को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है। विभिन्न राज्यों के असमान विकास की स्थितियां भी विभिन्न जातीयताओं के बीच वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोधों को बढ़ा रहे हैं। ये स्थितियां हमें साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के समक्ष कमजोर स्थिति में खड़े किए हुए हैं।

जनपदीय संस्कृतियां, जातीय संस्कृतियां और जनजाति संस्कृतियां और समग्र रूप में देश की बहुराष्ट्रीय जातीय संस्कृति, सभी साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण से क्षतिग्रस्त हो रही हैं, वे विकृत की जा रही हैं। उनका अपसंस्कृतिकरण किया जा रहा है। भाषाई साम्राज्यवाद फैल रहा है। लेकिन साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के विरूद्ध, बहुराष्ट्रीय भारत की विभिन्न राष्ट्रीय जातीयताएं, जनपद और जनजातियां एकताबद्ध प्रतिरोध, प्रतिकार, संगठित नहीं कर पा रही हैं। वे साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के बरअक्स अपनी सांस्कृतिक नीति सुनिश्चित नहीं कर पा रही हैं। आर्थिक राजनैतिक क्षेत्र में भी साम्राज्यवादी घुसपैठ और आक्रमण का स्थानीय प्रतिरोध और प्रतिकार तो प्रत्यक्ष होता हैं लेकिन वे व्यापक रूप धारण नहीं कर पाते भारतीय बहुराष्ट्रीय राज्य की केन्द्रीय और राज्य सरकारें इन प्रतिरोधों-प्रतिकारों में साम्राज्यवाद विरोधी जन पक्षधर भूमिका निभाने के बजाय प्रतिरोधी जनता का दमन करती दिखाई देती है। हिन्दू उग्रवादी मानसिकता पश्चिमी संस्कृति का जिस तरह का विरोध संगठित करती है वह अपने मूल चरित्र में गैर-जनतांत्रिक एवं फासीवादी होता है। वे साम्राज्यवादी अपसंस्कृति से नहीं लड़ रहे होते हैं, बल्कि हिन्दुत्ववादी सामंती संस्कृति की रक्षा हेतु सामंती लठैतों की तरह व्यवहार कर रहे होते हैं।

भारतीय समाज की सामाजिक संरचना मुख्यतया सामंती है। वह जनतांत्रिक आधुनिक समाज में विकसित नहीं हो सका। जिसे आधुनिक समाज कहा जाता है वह पश्चिमी संस्कृति की नकल जरूर करता है। रहन-सहन के आधुनिक ढंग तो उसने सीख लिए हैं, ऊपरी आचरण की सभ्यता भी सीख ली है, लेकिन उसकी चित्तवृत्ति सामंती ही बनी हुई है। औरों की तो बात छोडि़ए हमारे साम्यवादी भी सामंती अहं, व्यक्तिवाद और प्रभुतावादी प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। विचारों से साम्यवादी और व्यवहार में सामंती प्रवृत्ति साम्यवादी आंदोलन की एक बड़ी समस्या के रूप में आज भी बनी हुई है। गैर साम्यवादियों की तो बात ही छोडि़ए। विकसित पूंजीवादी देशों में जो आधुनिक संस्कृति अस्तित्व में आयी वह उनके शासकों के साम्राज्यवादी व्यवहार ने विकृत कर  दी हैं, भोगवादी, उपभोक्तावादी, वर्चस्ववादी और कुंठित।

जनपदीय संस्कृति, सामंती संस्कृति ही होती है। सवाल उनकी सामंती संस्कृति को बचाने का नहीं है, उनकी संस्कृति के श्रेष्ठ की रक्षा करते हुए उसे आधुनिक जनतांत्रिक संस्कृति में विकसित करने का है। आधुनिकता का अभिप्राय पश्चिम की नकल नहीं होता, तर्कसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता है। रूढि़यों-अंधविश्वासों-निरर्थक धार्मिक कर्मकाण्डों से मुक्ति होता है। समानता-स्वतंत्रता और भाई-चारे के मूल्यों से युक्त जीवन दर्शन को ग्रहण करना होता है। लिंग भेद, वर्ण भेद, जाति भेद, क्षेत्रियता भेद और वर्ग भेद विरोधी समानता की पक्षधर चेतना होता है। जनतांत्रिक व्यवहार होता है। ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान होता है।

ब्रिटिश साम्राज्वाद के दौर में हम पश्चिम के आधुनिक चिन्तन के सम्पर्क में तो आए, विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारवादी आंदोलन भी हुए। लेकिन भारतीय समाज का सामंती ढांचे में और खासकर सामंती संस्कृति में अत्यल्प मात्रात्मक परिवर्तन ही सम्भव हो पाया।

भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ादी के बाद तेजी से बढ़नी थी, वह नहीं बढ़ी। शासक वर्गों ने सामंतवाद और भूस्वामी वर्ग से गठजोड़ किया। भारतीय पूंजीवाद तब अस्तित्व में आया जबकि पूंजीवाद, वैश्विक स्तर पर अपनी पतनशील साम्राज्यवादी अवस्था में प्रवेश कर गया। दुनिया को वह दो बार व्यापक और लम्बे विश्वयुद्धों की तबाही दे चुका। वह फासीवाद का तोहफा लिए अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े दौड़ाने लगा। उसकी अपनी प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो गई और वह पतनशील भूमिकाओं के साथ पूरी तीव्रता के साथ सक्रिय हो गया। चूंकि दुनिया में उसका समाजवादी विकल्प विचारधारात्मक स्तर पर ही नहीं जमीनी स्तर पर भी जड़ें जमाकर सारी दुनिया के जन-गणों के बीच लोकप्रियता अर्जित करने लगा, इसलिए अपनी मृत्यु को प्रत्यक्ष देखकर वह बर्बरता की तरफ बढ़ने लगा।

भारतीय पूंजीवादी शासक वर्ग भी अपनी सत्ता के छिनने और मेहनतकश जनता के सच्चे जनतंत्र की स्थापना के भय से अपनी प्रगतिशील भूमिका को छोड़कर सामंतों, राजे-रजवाड़ों और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ खड़ा हो गया। राजा-महाराजाओं और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पुरातनपंथी विचारों, धार्मिक अंधविश्वासों और ग्राम्य जीवन के स्तर पर सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जातिवादी चेतना को पुष्ट किया। जाति और धर्म की सामंती सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को बल प्रदान किया। किसानों और मजदूरों का दमन किया। हैदराबाद निजाम के पक्ष में तेलंगाना के किसान आंदोलन को कुचलना, केरल की जनतांत्रिक ढंग से निर्वाचित साम्यवादी सरकार को भंग करना, देश भर में जगह-जगह मजदूर आंदोलनों पर पुलिस की गोलियां चलना, इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

पूंजीवादी विकास ने श्रमजीवी जन-गण की झोली में कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं डाले। दलितों पर अत्याचार और वर्ण-भेद का व्यवहार, महिलाओं पर अत्याचार और लिंग-भेद का व्यवहार, आदिवासियों का विस्थापन और उनका उत्पीड़न निरंतर जारी ही नहीं रहा, बढ़ता गया। औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए जो शिक्षा व्यवस्था खड़ी की गई उसने एक मध्य वर्ग जरूर बनाया। आरक्षण ने दलितों के बीच भी एक मध्य वर्ग बनाया और कुछ आदिवासी जन भी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान के नजदीक आए। यह मध्य वर्ग भी भारतीय समाज को आधुनिक सांस्कृतिक वातावरण निर्मित करने के बजाय खुद भी सामंती संस्कृति को ही जीता रहा। पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता में हिस्सेदारी और अपना अभिजनीकरण ही उनका लक्ष्य बनकर रह गया। जबकि इस मध्यवर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, उन्हें श्रमजीवी जन-जन के इन अस्सी प्रतिशत लोगों को पूंजीवाद-सामंतवाद से मुक्ति के क्रांतिकारी पथ पर आगे बढ़ाना था।

विभिन्न भारतीय जातीयताएं, केन्द्रीय शासक वर्ग के अविश्सनीय, पक्षपातपूर्ण, चालबाज और गैर जनतांत्रिक, व्यवहार के कारण अपनी जातीय स्वायत्तता और विकास तथा सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए सन्नद्ध होने लगीं। हिन्दु तत्ववादियों ने हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान जैसे नारों के साथ हिन्दी जाति के प्रभुताशील व्यवहार का डर फैलाया। फलस्वरूप राज-काज और अन्तरप्रान्तीय सम्पर्क की भाषा के रूप में अंग्रेजी न केवल जारी रही बल्कि दक्षिण भारतीय जातीयताओं ने उसे ही बनाए रखने का दबाव भी जारी रखा। यह स्थिति भारत में वर्तमान साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के लिए काफी सहायक सिद्ध हुई। बल्कि उसने अंग्रेजीदां प्रभुत्वशाली लोगों के माध्यम से अपनी राह को बेहद आसान बना लिया।

भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती वह संस्कृति का माध्यम भी होती है। पश्चिमी संस्कृति के पतनशील तत्व और व्यवहार, उसके माध्यम से भारतीय संस्कृति पर सहज ही आरूढ़ होते रहे। पश्चिमी साम्राज्यवादी शासकों को भारतीय शासक वर्ग को अपनी पतनशील संस्कृति में ढालने का काम आसान हो गया। भारत में एक ऐसा अंग्रेजी भाषी समाज अस्तित्वमान हो गया जिसके हाथ में राज्यसत्ता के तमाम सूत्र हैं और जो पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण में लिप्त है। यह तबका भारत में साम्राज्यवादी संस्कृति का वाहक बना हुआ है। उसे पश्चिम की घटिया, निकृष्ट और सड़ांधयुक्त चीजें भी उच्च कोटि की नजर आती हैं और भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठ भी हीन और त्याज्य नजर आता है।

हमें इस वास्तविकता को भी समझना चाहिए कि जनपदीय संस्कृतियां जब एक-जातीय संस्कृति में समाहित होने की प्रक्रिया से गुजर रही होती है तो उनमें से एक संस्कृति प्रमुख रूप धारण कर लेती है और अन्य संस्कृतियां उसमें समाहित होने लगती हैं। हिन्दी जातीयता के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं होने के पीछे विभिन्न जनपदों की संस्कृति की अपनी समृद्ध अवस्था और किसी दूसरी संस्कृति के वर्चस्व के प्रति उनकी सजग सक्रियता भी एक मुख्य कारण रही दिखाई देती है। अन्य सांस्कृतिक तत्व तो उनके मध्य परस्पर अपनाये जाते दिखते हैं, लेकिन भाषा के स्तर पर वे हिन्दी के वर्चस्ववाद और अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई की पहचान के प्रति काफी सजग और चिन्तित दिखाई देते हैं। विभिन्न जनपदीय भाषायें संविधान की आठवीं सूची में शामिल होना चाहती हैं। अतः आंचलिक बोलियों और जनपदीय भाषाओं के संरक्षण की आश्वस्ति आवश्यक हो गई है।

हिन्दी जातीयता एक बहुजनपदीय संघबद्ध जातीयता के रूप में विकसित हुई है और उसका यही स्वरूप स्वाभाविक प्रतीत होता है। सामंती साम्राज्यवादी समय में उसके तमिल, मराठी, बंगाली, मलयाली, तेलगू जातियताओं की तरह एकमेक जातियता का रूप ग्रण करने के अवसर ज्यादा थे। अब उनके बीच संघबद्धता ही जनतांत्रिक व्यवहार के अनुकूल है।

दूसरी तरफ वैश्वीकरण की स्थितियां रोजगार के लिए अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य बनाती जा रही है। इसलिए सभी जनपदों और जातीयताओं में ठेठ ‘प्रेप लेवल’ से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूल शिक्षा का मुख्य आधार बनते जा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा में व्यवहार हेतु भी अनेक प्रकार के कोचिंग इंस्टीट्यूट और इंगलिश स्पीकिंग कोर्स चल रहे हैं। हिन्दी जातीयता के जनपद और दूसरी जातीयतायें हिन्दी के मुकाबिल अपनी स्वतंत्र पहचान के प्रति तो भारी सजगता दिखाते दिखते हैं, लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व को उत्साहपूर्वक स्वीकार किया जा रहा है। इस स्थिति में हिन्दी का वर्चस्ववादी व्यवहार, अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्ववाद को स्वीकार बनाने में परोक्ष सहायक दिखाई देता है।

( अगली बार – लगातार – तीसरा भाग )

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आलेख – शिवराम
प्रस्तुति – रवि कुमार.

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – पहला भाग

सामान्य

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – पहला भाग
शिवराम

( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है पहला भाग. )

प्राचीन जन-समाज, जिनके अपने-अपने जनपद भी हुआ करते थे परस्पर युद्धरत भी होते थे और संघबद्ध भी होते थे। युद्ध भी और संघबद्धता भी दो या अधिक जनपदों के मध्य सांस्कृतिक अन्तःक्रिया की स्थिति उत्पन्न करते थे। लेकिन दोनों स्थितियों में मूलभूत अंतर होता था। युद्धजनित स्थिति में ‘विजेता’ जन समाज की, ‘पराजित’ जन समाज के युद्धबन्दियों के साथ अन्तःक्रिया होती थी। विजेता जन समाज द्वारा युद्धबंदी अपने में मिला तो लिए जाते थे, लेकिन विजेता जन समाज यहां प्रभुतापूर्ण प्रभावशाली स्थिति में होता था और पराजित युद्धबंदी लघुतापूर्ण उपकृत स्थिति में होते थे।

ये ‘जन समाज’ आदिम साम्यवादी समाज थे जिनमें किसी भी प्रकार के भेदभाव अभी उत्पन्न नहीं हुए थे। दूसरे जनपद के युद्धबन्दी थोड़े ही समय में घुलमिल जाते थे। इनके बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी होता था। युद्धबंदियों के पास अपने जनपद से लाया हुआ जो महत्वपूर्ण ज्ञान, कौशल और मूल्यगत-व्यवहारगत बातें होती थीं, उन्हें विजेता जनपद के लोगों द्वारा सहज रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। पराजित युद्धबंदियों को तो विजेता जनपद की संस्कृति में ढलना ही होता था। जबकि जनपदों की संघबद्धता की स्थिति में संघबद्ध हुए जनपद लगभग समान स्तर पर होते थे और उनके बीच होने वाली अंतःक्रिया हर प्रकार के दबाव से मुक्त होती थी। दबाव मुक्त अवस्था में होने वाले इस मेल-जोल में उनकी संस्कृतियों का श्रेष्ठ ही पुष्पित-पल्लवित होता था और निकृष्ट या क्षीण और हीन मुरझाता जाता था। दोनों संस्कृतियां मिल कर एक नयी समृद्ध संस्कृति का निर्माण करती थीं। जब कई जनपद संघबद्ध होते थे तो बड़े और अधिक समृद्ध जनपद की नेतृत्वकारी स्थिति होती थी।

यह जनसंस्कृतियों का प्रारम्भिक पारस्परिक व्यवहार था, जो जनतांत्रिक प्रकार का भी था और साम्राज्यवादी प्रकार का भी। लेकिन साम्राज्यवादी प्रकार भी बाद के साम्राज्यवादी व्यवहारों जैसा वर्चस्ववादी नहीं था।

फ़्रेडरिक एंगेल्स इस विषय में अमरीका की आदिवासी जातियों के बारे में लिखते हुए बताते हैं कि – ‘‘जनसंख्या का घनत्व बढ़ने से यह आवश्यकता उत्पन्न हुई कि आंतरिक रूप से और बाहरी दुनिया के विरूद्ध संघबद्ध हुआ जाय। हर जगह सम्बन्धित जातियों का संघ आवश्यक हुआ और शीघ्र ही उनका परस्पर घुल-मिलकर एक होना भी आवश्यक हो गया। तब कबीलों के विभिन्न प्रदेश ‘जनपद’, जनता के एक ही विशाल प्रदेश ‘महाजनपद’ में घुलमिल कर एक हो गए।’’ साथ ही एंगेल्स यह भी बताते हैं कि – ‘‘प्राचीन जनों का एकीकरण समानता और भाईचारे के आधार पर सदा जनतांत्रिक ढंग से नहीं होता। शक्तिशाली जन दूसरों पर विजय प्राप्त करके भी यह एकीकरण की प्रक्रिया पूरी करते थे।’’

दरअसल, प्राचीन ‘जन-समाज’ कोई स्थिर जन समाज नहीं होते थे। प्राचीन कबीलाई ‘जन’ जो रक्तसम्बन्धों पर आधारित  थे, वे रक्त सम्बन्धों पर आधारित होते हुए भी क्रमशः शुद्ध रक्त वाले नहीं रह गये थे। अजनबियों और युद्धबंदियों को सम्मिलित करने और दूसरे ‘जन-समाजों’ के साथ संघबद्ध होते रहने की प्रक्रिया में वे मिश्रित नस्लों वाले होते गये। इस दौरान दस्तकारी और कृषि के विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वामित्व और व्यक्तिगत सम्पत्ति का आविर्भाव भी होने लगा। कार्य विभाजन आवश्यक हो गया और वर्णव्यवस्था अस्तित्व में आई। आदिम साम्यवादी ‘जन-समाज’ सामंती समाज में बदलने लगे। जन समाजों का विघटन होने लगा और महाजनपदों का गठन हुआ।

यद्यपि प्राचीन जन समाजों का यह विघटन सर्वत्र न तो एक साथ हुआ और न ही पूर्णरूपेण हुआ। नए सामंती जन-पद, प्राचीन जन-समाजों के अनेक अवशेषों के साथ अस्तित्वमान हुए। बल्कि भारत की भौगोलिक राजनैतिक स्थितियों ने विकास के विभिन्न स्तरों के जन-समाजों को भी सामान्य विकासशील उथल-पुथल से दूर रहकर अस्तित्वमान रहने की सुविधा भी प्रदान की। इन नये जनपदों के निर्माण की प्रक्रिया को देखें तो पाते हैं कि वहां भी समर्थ-शक्तिशाली ‘जन’ और दूसरे ‘जनों’ के बीच साम्राज्यवादी व्यवहार भी था। यह सामंती साम्राज्यवादी व्यवहार था। यह प्रक्रिया उत्तर भारत में चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर समुद्रगुप्त तक के साम्राज्यों के स्थापना काल में पूरी हो गई थी। डॉ. के.पी. जायसवाल ( हिन्दु पोलिटी, बंगलोर, 1943 ) के अनुसार ‘मौर्य साम्राज्यवाद’ और ‘हिन्दू यूनानी क्षत्रपों’ ने अधिकांश प्राचीन गणराज्यों यानी ‘जन-समाजों’ का विनाश किया।

यहां दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। एक तो यह कि जब सामंती साम्राज्यवाद ने अपने समय में प्राचीन ‘जन-समाजों’ को नए सामंती साम्राज्य में एकीकृत किया तो सामंती साम्राज्यवादी संस्कृति ने प्राचीन जनपदों की संस्कृति के साथ कैसा व्यवहार किया और साथ ही यह भी देखना चाहिए कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद आज विभिन्न राष्ट्रीय राज्यों की जातीय और जनपदीय संस्कृतियों से कैसा व्यवहार कर रहा है। इन दोनों साम्राज्यवादी व्यवहारों में क्या भेद हैं? ये भेद मात्रात्मक ही हैं या गुणात्मक भी। दूसरे यह कि जैसे प्राचीन गण समाजों के विघटन और महाजनपदों तथा लघुजातियों के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई और सामंती साम्राज्यों के समय में भी ‘जन’ समाजों के न केवल अनेक अवशेष अस्तित्वमान रहे बल्कि अनेक जन जातियां भी अस्तित्वमान रहीं, वैसे ही आधुनिक समय में महाजनपदों और लघु जातीयताओं के एकीकरण और राष्ट्रीय जातीयताओं के निर्माण की प्रक्रिया भी यहां पूरी नहीं हुई। अनेक लघु जातीयताएं, जनपद और जन-जातियां अपने विशिष्ट स्वरूप को आज भी बनाए रखे हुए हैं।

हम आज भी अनेक अंचलों को जन-पद कहते हैं। यद्यपि अपनी जनपदीय अवस्था की अनेक विशिष्टताओं से युक्त होते हुए भी इन जनपदों ने महाजनपदों, लघु जातियों और जातीय तथा राष्ट्रीय बहुजातीय पुनर्गठनों की लम्बी राजनैतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की है। ब्रज, बुंदेलखण्ड, मिथला, भोजपुर आदि ऐसे ही अंचल है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड और राजस्थान एवं  अन्य प्रदेशों में भी अनेक जनजातियां प्राचीन सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के साथ अब भी अस्तित्वमान है। इसी प्रकार विभिन्न राष्ट्रीय जातीयताएं संघबद्ध तो हुई हैं लेकिन एक आधुनिक बहुराष्ट्रीय जातीयता के रूप में घुल मिल जाने की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है।

भारत में हिन्दी जातीय एकीकरण का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। बल्कि उल्टी प्रक्रिया भी दिखाई देने लगती है। जनपदीय-आंचलिक भाषा-बोलियों की मान्यता और अलग राज्य के रूप में राजनैतिक इकाई के रूप में गठन की मांग के लिए जो आंदोलन दिखाई पड़ते हैं वे इस बात के द्योतक हैं कि जनपदों के जातीय सांस्कृतिक विकास में उल्लेखनीय अधूरापन रह गया है। वे रच-पच कर एकमेक नहीं हो पाए। साथ ही इस बात के द्योतक भी हैं कि आंचलिक और उपजातीय संस्कृतियां देश के भीतर से भी साम्राज्यवादी किस्म के राजनैतिक भेदभाव और सांस्कृतिक उपेक्षा महसूस कर रही हैं। वे इस बात के भी द्योतक हैं कि अब पूंजीवाद आधुनिक जातीयताओं के निर्माण की जनतांत्रिक प्रक्रिया को बल प्रदान करने के बजाय उनके विखण्डन की अवसरवादी राजनीति को प्रश्रय दे रहा है।

इन जनपदों में स्वतंत्र पहचान की प्रवृत्ति क्यों रही? क्या यह सच नहीं है कि उनकी अपनी भाषा साहित्य और संस्कृति एक समृद्ध जातीय इकाई के रूप में विकसित हुई, और जनपदीय सांस्कृतिक इकाई के बजाय वे जातीय इकाई की तरह व्यवहार करती रहीं?

भारतीय बहुराष्ट्रीय राज्य की संरचना की विशिष्टताओं को भली-भांति समझा जाना चाहिए। तमिल जातीयता का गठन 1310 ई. से पहले ही हो गया था। 1669 में शिवाजी ने मराठा राज्य स्थापित किया। कार्ल माक्र्स ने ‘नोट्स आन इण्डियन हिस्ट्री’ में कहा ‘‘इस प्रकार मराठे एक जाति बने जिन पर स्वतंत्र राजा राज्य करता था।’’ दक्षिण की अन्य जातीयताओं और बंगाली जातीयताओं के गठन की प्रक्रिया भी काफी पहले पूरी हो गई लेकिन कुछ अन्य एवं हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों के बीच जातीयता के निर्माण की प्रक्रिया अभी भी अधूरी है। जबकि सामंती साम्राज्यवाद के काल में ही लघु जातीयताओं के सम्मिलन और बड़े प्रदेशों के गठन की प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए थी। जबकि उत्तर भारत की लघु जातीयताओं वाले जनपदों में ऐसी अनेक आधारभूत समानताएं हैं कि उनका महाप्रदेश के रूप में संगठित होना स्वाभाविक था। मुगल शासन के अंतर्गत यह प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। लगभग पूरा उत्तर भारत एक हुकूमत के अधीन रहा।  वैसे तुर्कों के समय में भी उत्तर भारत काफी केन्द्रबद्ध हो गया था। यह इतिहास की जरूरत थी। एक केन्द्रीकृत राज्यसत्ता इस क्षेत्र के विकास की अनिवार्यता थी। डॉ. रामविलास शर्मा ‘‘भाषा और समाज’’ में उल्लेख करते हैं कि – ‘‘राजपूत सामंतों की यह बुनियादी कमजोरी थी कि वे न तो राजस्थान को एक सुकेन्द्रित शासन व्यवस्था में ला सके न समूचे उत्तर भारत ( या हिन्दी भाषी प्रदेश ) का एक राज्य कायम कर सके। राजस्थान या हिन्दी भाषी प्रदेश में वे एक संयुक्त जातीय राज्य कायम नहीं कर सके।’’

जबकि यह उनका ऐतिहासिक दायित्व था। इस दायित्व को विदेशी हमलावर राजनैतिक शक्तियों ने पूरा किया। संभवतः इस अनिवार्यता के लिए बनी रिक्तता ने ही उन्हें यह अवसर दिया। ‘‘जागीरदारों और सामंतों के स्वतंत्र राज्यों का अलगाव खत्म किये बिना व्यापार की उन्नति और उसका प्रचार सम्भव नहीं था।’’ ( डॉ. रामविलास शर्मा ) महाजनी पूंजीवाद की विकासशीलता के लिए सुकेन्द्रित राज्य व्यवस्था आवश्यक थी।

फिर यह सवाल उठता है कि बावजूद मुगलों के नेतृत्व में संकेन्द्रित राज्य व्यवस्था के हिन्दी महाजातीयता का गठन पूर्णता को क्यों नहीं प्राप्त कर सका? ब्रिटिश साम्राज्य के आविर्भाव और मुगल सत्ता के कमजोर होते ही वह लघुजातीयताओं वाले पुराने सामंती राज्यों में क्यों बंट गया? 1857 में अगर ये राज्य एकजुट होकर एक सुगठित जातीयता के रूप में अंग्रेजी ताकत से लड़े होते तो यह निश्चित लगता है कि 1857 के बाद के भारत का इतिहास कुछ और ही रूप में हमारे सामने आता।

दक्षिण भारतीय जातीयताएं स्वतंत्र राष्ट्र राज्यों के रूप में रहने को प्रवृत्त रहती दिखाई देती थीं। वर्ण व्यवस्था के लम्बे, निर्मम और बर्बर व्यवहार ने दलित जातियों में सम्पूर्ण समाज के प्रति भेदभाव और अत्याचार जन्य अलगाव का बोध था। सामंती राजाओं और नवाबों की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों ने ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित होने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाईं। जातीय संस्कृतियां शक्तिशाली राजनैतिक इकाई के रूप में अस्तित्वमान नहीं रह पाती तो दूसरी शक्तिशाली जातीयतायें आक्रामक साम्राज्यवादी व्यवहार करने का अवसर पा जाती हैं।

( अगली बार – लगातार – दूसरा भाग )

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आलेख – शिवराम
प्रस्तुति – रवि कुमार