कोई कुछ कर रहा है और कोई टांग खिंचाई
उल्टेलाल जी आदतन फिर आकर जम गये, आजादी की दूसरी लड़ाई का जोश उनके सिर भी चढ़ कर बोल रहा था, कभी-कभी इसी रामलीला मैदान पर कुछ ही दिनों पहले हुई आज़ादी की पहली लड़ाई का हश्र उनके माथे पर शिकन डाल देता था. इस बार वे उत्साहित थे और जोर-शोर से अपनी उल्टी बुद्धि को इस क्रांति और क्रांतिकारियों को गरियाने और लानते भेजने में लगा रहे थे. हालांकि वे कह यह भी रहे थे कि इसका सही विश्लेषण और आकलन जरूरी है, यह जानबूझकर किया गया प्रपंच है जो नये भ्रम उत्पन्न करने और परिवर्तनकारी आकांक्षाओं को यथास्थिति में ही कुंद कर डालने के लिए रचा गया षडयंत्र है. उनकी जैसी उल्टी बुद्धि वैसी ही उल्टी सोच.
हालांकि हम उनके सामने कुछ बोलने से बचते हैं ताकि बात आगे नहीं बढ़े और वे जल्दी ही अपनी भड़ास निकाल कर अपनी राह पकड़े और हम भी अपनी दिनचर्याओं में ही अपना श्रम और उर्जा लगाते रह सकें, पर अपनी आस्थाओं और मासूम मान्यताओं पर हो रही इस दनादन चोट से तिलमिलाते हुए हम थोड़ी देर मे ही उकता गये और बोल पड़े, ‘या उल्टेलाल जी, आप तो बिना वज़ह शक करते रहते हैं, ख़ुद तो कुछ करते नहीं और कोई दूसरा कोई कुछ कर रहा हो तो बस मीन-मेख निकालना शुरू कर देते हैं, उसकी टांग खींचना शुरू कर देते हैं. आपको यह सही नहीं लगता तो ख़ुद क्यों नहीं कुछ करते, पता पड़ जाएगा कि कितनी जनता आपके साथ खड़ी है और आपकी औकात क्या है?’
अब आप समझ सकते हैं कि हम बड़ी गलती कर गए थे, उल्टेलाल जी को भरपूर मौका मिल गया था. और ऐसा ही हुआ उन्होंने हमें जम कर पेला. वे बोले, “यह भली कही आपने कि ‘कुछ’ तो किया जा रहा है, पर इस ‘कुछ’ करने के भी कुछ मानी हैं क्या? मूल समस्याएं हमारी क्या है, और यह ‘कुछ’ जो किया जा रहा है इसका इनसे मतलब भी है कि नहीं, क्या हमें यह नहीं देखना चाहिए? इस ‘कुछ’ करने से कोई रास्ता भी निकलेगा या हम इसी भूल-भुलैया में ही घूमते रहने को मजबूर रह जाएंगे?” उन्होंने दनादन इतने प्रश्न दाग दिये कि हमारी खोपड़ी हैंग हो गई और हम अपनी आंखें चौडा़ए उन्हें टुकुर-टुकुर ताकते रह गये.
उल्टेलाल जी को शायद हमारी इस हालत पर रहम आया और बोले, ‘छोड़िए श्रीमान जी, आप काहे अपने दिमाग़ का दही बनाते हैं? चलिए हम आपको एक कहानी सुनाते हैं.’ हमें थोड़ा सा चैन आया कि नहीं यह हम अभी पूरी तरह समझ भी नहीं पाये थे कि उन्होंने कहानी शुरू कर दी.
“एक जंगल था जैसा होता है. उसमें सभी कुछ वैसा ही था, जैसा कि अभी तक होता आया है. यानि समर्थ और ताकतवरों का राज चलता था. उनका राजा एक शेर था, उनके कुछ उन जैसे ही दूसरों को खा-पीकर जीने वाले कारकून थे, और बाकी उनकी उदर-पूर्ति के लिए बहुत सारे जानवर. खैर, कहानी आगे बढ़ाते हैं.”
“अब एक बार हुआ यूं कि एक हिरणी के छोटे से शावक को शेर ने दबोच लिया. हिरणी बेचारी इधर-उधर गुहार लगाने लगी. सभी किंकर्तव्यविमूढ़ थे, क्या करते. किसी ने सुझाया कि एक पहुंचे हुए अहिंसावादी संत हैं, वे पास ही के एक पेड़ पर अपनी इसी ताकत से सुरक्षित ज़िंदगी गुजार रहे हैं. हिरणी को थोड़ा शक हुआ तो उसे बताया गया कि उन्होंने राजा जी के कई कारकूनों के आचार-विचारों के खिलाफ़ कई लड़ाइयां लड़ी हैं और फिर भी वे अभी तक ज़िंदा हैं, भले-चंगे हैं, अपने पेड़ पर मस्त हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि उनमें कुछ तो बात है, वे जरूर कोई राह दिखा सकते हैं, कोई राह निकाल सकते हैं.”
“मरती क्या ना करती, बेचारी हिरणी को उम्मीद जगी और वह पेड़ वाले संत बंदर की शरण में गई और उन्हें मामला समझाया, उनसे गुहार की कि उसके बच्चे को उस शेर से किसी भी तरह बचा लिया जाए. संत बंदर ममतामयी थे, तुरंत द्रवित हो गए और हिरणी तथा शावक का उद्धार करने को उद्यत हो उठे. वे बोले चलो, हमें वहां ले चलो जहां वह दुष्ट शेर यह हिंसा कर रहा है, पाप कर रहा है, वैसे तो उसे स्वयं भगवान ही वह सज़ा देंगे कि वह नरक में सड़-सड़ कर मरेगा, पर जीव के निमित्त हमें भी कुछ कर्म करने ही होंगे. वे उठे और हिरणी के साथ हो लिए.”
“शेर शावक को दबोचे हुआ था और उससे ठिठोली कर रहा था, उसे खाने से पहले उससे मज़े ले रहा था. संत बंदर वहां पहुंचे और शेर से विनती की कि वह शावक को छोड़ दे और अपने राजधर्म का पालन करे तथा प्रजावत्सल बने. वे उसे तरह-तरह के पंचतंत्रीय उपदेश देने लगे. शेर कुछ परेशान सा हुआ तो उसने बंदर को झिड़क दिया. संत बंदर कुछ बिदके, उनकी पद्धति और उनके अहम् को कुछ चोट पहुंची तो उन्होंने शेर को अपने अहिंसक दांत दिखाए और थोड़ी बहुर खौं-खौं की. शेर चिढ़ गया और एक तेज़ दहाड़ मार कर थोड़ा संत बंदर की तरफ़ लपका. संत बंदर भागे और सुरक्षित दूरी बनाते हुए पास के एक पेड़ पर चढ गए. शेर ने अब शावक की गरदन दबोच ली और उसे मारकर खाने की तैयारी करने लगा.”
“संत बंदर वहीं पेड से उसे गरियाने लगे. धमकाने लगे. कभी दांत दिखाते, कभी खौं-खौं करते. शेर अब उस शावक की खाल को अपने पैने दांतों से नौंचने लगा. संत बंदर की उछलकूद भी बढ़ गई. वे कभी इस पेड़ पर, कभी उस पर दौड़ते, शोर मचाने लगे, जमकर उछलकूद करने लगे. खौं-खौं, चीं-चीं से सारा आलम गूंजने लगा, इस शोर-शराबे में जंगल के और प्राणियों की भी चीख-पुकार शामिल होने लगी. गज़ब का शोर मच गया था, अफरा-तफरी मच गई. शेर को भी शायद कुछ फर्क पड़ा हो या नहीं पता नहीं, पर वह आराम से उस शावक के मांस को नौंचता-खाता रहा. हिरणी थोड़ा दूर खड़ी, बैचैनी से इधर-उधर होती, कभी संत को, उनके क्रियाकलापों को, कभी अपने शावक को खाये जाते देखती रही. आंसूं बहाती रही.”
“कुछ देर बाद शेर ने अपना नाश्ता कर एक दहाड़ लगाई और अपनी राह ली. आलम की चीख-पुकार भी शांत हुई और संत बंदर की कार्यवाहियां भी. वे थके-हारे से धीरे-धीरे हिरणी के पास पहुंचे और गंभीर आवाज़ में बोले, हे हिरणी, होनी को कौन टाल सकता है, सब उसी प्रभु की इच्छा है, वह जो भी करता है ठीक ही करता है, हमारे भले के लिए ही करता है. हमारे हाथ में जो कुछ था वह हमने किया, तुमने देखा ही कि हमने कितना कुछ किया, कितनी महनत की, अपनी जान के बाजी लगा दी. पर नियति के लेखे को भला कोई मिटा सकता है.”
“चारों और जय-जयकार होने लगी. संत चले गए. उसके साथी उसे बचा हुआ दिलासा देने लगे. कहने लगे कि देखो कुछ तो हुआ ना, कुछ तो किया ना. और हमारे हाथ में हैं भी क्या. हिरणी भी कितनी देर तक टेंसुएं बहाती, उसे भी कुछ देर में यह मान ही लेना था कि जैसे सभी ने कुछ किया, उसने भी कुछ तो किया ही था, बिना अपनी जान पर शामत आए जितना बन पड़ सकता था उसने भी कुछ किया ही था, लोगों ने भी, संत बंदर ने भी.” उन्होंने अपनी कहानी जैसे यह कहते हुए ख़त्म सी की.
हम हतप्रभ थे. एकदम किंकर्तव्यविमूढ़. इस कहानी ने हमारा जैसे खून ही जमा दिया था. पर हम अपने में लौटे, सिर और हाथ झटके और बोले, “उल्टेलाल जी आप कुछ भी कहो, पर कुछ तो किया ही गया था, कुछ तो किया ही जाना चाहिए, कुछ तो करना ही होगा ना.” और यह कहते हुए हम चुपचाप वहां से खिसक लिए. पुनः शांति स्थापित हो गई थी.
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व्यंग्य – रवि कुमार