Category Archives: कविताएं

उम्मीद अभी बाकी है

सामान्य

उम्म्मीद अभी बाकी है
००००००००००००००००००००००

तपती हुई लंबी दोपहरों में
कुदालें खोदती हैं हथौड़ा दनदनाता है
गर्म लू के थपेड़ों को
पसीना अभी भी शीतल बनाता है

पेड़ों के पत्ते सरसराते हैं
उनके तले अभी छाया मचलती है
घर लौटती पगडंडियों पर
अभी भी हलचल फुदकती है

चूल्हों के धुंए की रंगत में
अभी भी शाम ढलती है
मचलते हैं अभी गीत होठों पर
कानों में शहनाई सी घुलती है

परिन्दों का कारवां अभी
अपने बसेरों तक पहुंचता है
आंगन में रातरानी का पौधा
अभी भी ख़ूब महकता है

दूर किसी बस्ती में
एक दिये की लौ थिरकती है
एक मायूसी भरी आंख में
जुगनु सी चमक चिलकती है

लंबी रात के बाद अभी भी
क्षितिज पर लालिमा खिलती है
धरती अभी भी अलसाई सी
आसमां के आगोश में करवट बदलती है

मां के आंचल से निकलकर
एक बच्चा खिलखिलाता है
अपने पिता की हंसी को पकड़ने
उसके पीछे दौड़ता है
एक कुत्ता भौंकता है
एक तितली पंख टटोलती है
एक मुस्कुराहट लब खोलती है

अभी भी आवाज़ लरजती है
अभी भी दिल घड़कता है
आंखों की कोर पर
अभी भी एक आंसू ठहरता है

माना चौतरफ़
नाउम्मीदियां ही हावी हैं
पर फिर भी मेरे यार
उम्म्मीद अभी बाकी है

चीखों में लाचारगी नहीं
जूझती तड़प अभी बाकी है
मुद्राओं में समर्पण नहीं
लड़ पाने की जुंबिश अभी बाकी है

उम्म्मीद अभी बाकी है

०००००
रवि कुमार

शैतानी रूहें भी कांपती है – कविता – रवि कुमार

सामान्य

शैतानी रूहें भी कांपती है

वे समझते थे
हमारी समझ में, हमारे ख़ून में
वे छाये हुए हैं चौतरफ़

वे समझते थे
वे हमें समेट चुके हैं अपने-आप में
कि हम अपनी-अपनी चौहद्दियों में
कै़द हैं और मस्त हैं

वे समझते थे कि हर जानिब उनका ज़ोर है
वे समझते थे कि हर स्मृति में उनका ख़ौफ़ है

वे हैं सरमाया हर शै का
वे हैं जवाब हर सवाल का

वे समझते थे कि हमारी ज़िंदगी
उनके रंगों में ही भरपूर है
कि हमारे शरीर गुलाम रहने को मजबूर हैं
कि हमारी रूहें उनके मायाजाल में उलझी हैं
कि मुक्ति के हर वितान अब नासमझी है

गो बात अब बिगड़-बिगड़ जाती है
कि सुनते हैं
शैतानी रूहें भी कांपती है

और हैलीकॉप्टर गोलियां बरसाने लगते हैं
और बम-वर्षक विमान उड़ान भरने लगते हैं
और आत्माओं को भी टैंकर रौंदने लगते हैं

यह विरोध के भूमंडलीकरण का दौर है
वे इसे ख़ौफ़ के भूमंडलीकरण में
तब्दील कर देना चाहते हैं

वे समझते हैं
कि हमें कुचला जा सकता है कीड़ो-मकौड़ो की तरह

हा – हा – हा – हा
अपनी हिटलरी मूंछौं के बीच से
चार्ली चैप्लिन
हंस उठते हैं बेसाख़्ता

०००००

रवि कुमार

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है – कविता – रवि कुमार

सामान्य

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है

लोग लड रहे हैं

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है
गा रही थी एक बया
घौंसला बुनते हुए

कुछ चींटियां फुसफुसा रही थीं आपस में
कि जितने लोग होते है
गोलियां अक्सर उतनी नहीं हुआ करतीं

जब-जब ठानी है हवाओं ने
गगनचुंबी क़िले ज़मींदोज़ होते रहे हैं
एक बुजुर्ग की झुर्रियों में
यह तहरीर आसानी से पढ़ी जा सकती है

लड़ कर ही आदमी यहां तक पहुंचा है
लड़ कर ही आगे जाया जा सकता है
यह अब कोई छुपाया जा सकने वाला राज़ नहीं रहा

लोग लड़ेंगे
लड़ेंगे और सीखेंगे
लड़कर ही यह सीखा जा सकता है
कि सिर्फ़ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर

लोग लड़ेंगे
और ख़ुद से सीखेंगे
झुर्रियों में तहरीर की हुई हर बात

जैसे कि
जहरीली घास को
समूल नष्ट करने के अलावा
कोई और विकल्प नहीं होता

०००००
( तहरीर – लिखावट, लिखना, लिखाई )

रवि कुमार

कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

सामान्य

कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

०००००००००००००००००

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आओ मेरे बच्चों कि ये रात बहुत भारी है
आओ मेरे बच्चों कि बेकार परदादारी है
मैं हार गया हूं अब ये साफ़ कह देना चाहता हूं
सीने से तुमको लिपटा कर सो जाना चाहता हूं

मेरी बेबसी, बेचारगी, ये मेरे डर हैं
कि हर हत्या का गुनाह मेरे सर है
मेरी आंखों में अटके आंसुओं को अब बह जाने दो
उफ़ तुम्हारी आंखों में बसे सपने, अब रह जाने दो
आओ कि आख़िरी सुक़ून भरी नींद में डूब जाएं
आओ कि इस ख़ूं-आलूदा जहां से बहुत दूर जाएं

काश कि यह हमारी आख़िरी रात हो जाए
काश कि यह हमारा आख़िरी साथ हो जाए

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमें
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

जहां कि नफ़रत ही जीने का तरीक़ा हो
जहां कि मारना ही जीने का सलीका हो
इंसानों के ख़ून से ही जहां क़ौमें सींची जाती हैं
लाशों पर जहां राष्ट्र की बुनियादें रखी जाती हैं

ये दुनिया को बाज़ार बनाने की कवायदें
इंसानियत को बेज़ार बनाने की रवायतें
ये हथियारों के ज़खीरे, ये वहशत के मंज़र
ये हैवानियत से भरे,  ये दहशत के मंज़र

जिन्हें यही चाहिए, उन्हें अपने-अपने ख़ुदा मुबारक हों
जिन्हें यही चाहिए. उन्हें ये रक्तरंजित गर्व मुबारक हों
जिन्हें ऐसी ही चाहिए दुनिया वे शौक से बना लें
अपने स्वर्ग, अपनी जन्नत वे ज़ौक़ से बना लें

इस दुनिया को बदल देने के सपने, अब जाने दो
मेरे बच्चों, मुझे सीने से लिपट कर सो जाने दो

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमे
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

०००००

रवि कुमार

मैं पुरुष खल कामी

सामान्य

मैं पुरुष खल कामी

००००००

चित्र - रवि कुमार, रावतभाटा

मैं पुरुष हूं
एक लोहे का सरिया है
सुदर्शन चक्र सा यह
बार-बार लौट आता है, इतराता है

यह भी मैं ही हूं
आदि-अनादि से, हजारों सालों से
मैं ही हूं जो रहा परे सभी सवालों से

मैं सदा से हूं
मैं अदा से हूं

मैं ही दुहते हुए गाय के स्तनों को
रच रहा था अविकल ऋचाएं
मैं ही स्खलित होते हुए उत्ताप में
रच रहा था पुराण गाथाएं

मैं ही रखने को अपनी सत्ता अक्षुण्ण
गढ़ रहा था अनुशासन स्मृतियां
मैं ही स्वर्गलोक के आरोहण को
गढ़ रहा था महाकाव्य-कृतियां

मैं ही था हर जगह
शासन की परिभाषाओं में
शोर्य की गाथाओं में
मैं ही था स्वर्ग के सिंहासन पर
अश्वमेधी यज्ञों पर
चतुर्दिक लहराते दंड़ों पर

मैं ही निष्कासनों का कर्ता था
मैं ही आश्रमों-आवासों में शील-हर्ता था
मैंनें ही रास रचाए थे
मैंने ही काम-शास्त्रों में पात्र निभाए थे

मै ही क्षीर-सागर में पैर दबवाता हूं
मैं अपनी लंबी आयु के लिए व्रत करवाता हूं
मैं ही उन अंधेरी गंद वीथियों में हूं
मैं ही इन इज्ज़त की बंद रीतियों में हूं

मैं ही परंपराएं चलाती खापों में हूं
गर्दन पर रखी खटिया की टांगों में हूं
ये मेरे ही पैर हैं जिसमें जूती है
ये मेरी ही मूंछे है जो कपाल को छूती हैं

ये मेरा ही शग़ल है, वीरता है
ये मेरा ही दंभ है जो सलवारों को चीरता है
कि नरक के द्वार को
मैं बंद कर सकता हूं तालों से
मैं पत्थरों से इसे पाट सकता हूं
मैं इसे नाना तरीक़ों से कील सकता हूं

मैं ब्रह्म हूं, मैं नर हूं
मैं अजर-अगोचर हूं
मेरी आंखों में
हरदम एक भूखी तपिश है
मेरी उंगलियों में
हरदम एक बेचैन लरजिश है

मेरी जांघों में
एक लपलपाता दरिया है
मेरे हाथों में
एक दंड है, एक सरिया है

मैं सदा से इसी सनातन खराश में हूं
मैं फिर-फिर से मौकों की तलाश में हूं…

०००००

रवि कुमार

जिन्हें वक़्त पढ़ने में लगा है – कविताएं – रवि कुमार

सामान्य

चेंपों पर दो कविताएं

चेंपा

वे जब आएंगे
तो ऐसे ही आएंगे

वे जब छाएंगे
तो ऐसे ही छाएंगे

वे जब-जब आए हैं
ऐसे ही आए हैं

वे जब-जब छाए हैं
ऐसे ही छाए हैं

वे गांवों से निकलते हैं
वे खेत-खलिहानों से निकलते हैं
वे लहलहाती फसलों से निकलते हैं

वे ज़मीं की पैदाईश हैं
वे आसमां की ख़्वाहिश हैं

वे गली-गली छा जाएंगे

०००००
चेंपा – सरसों की कटाई के बाद आसपास फैल जाने वाले छोटे कीट

चेंपों की तहरीर
जब लग रहा था
कि महलों में बसंत शबाब पर है

सरसों के खेतों-खलिहानों से बाहर निकल कर
तभी चौतरफ़ छा गये चेंपे

लाख इंतज़ाम कर लिए
राजा जी की आंखों को
आख़िर लाल कर गये चेंपे

वे तहरीर कर गये हैं
हर शै पर नई इबारतें

जिन्हें वक़्त पढ़ने में लगा है

०००००
चेंपा – सरसों की कटाई के बाद आसपास फैल जाने वाले छोटे कीट
तहरीर – लिखावट, लिखना, लिखाई

रवि कुमार

( “बनास जन” के नये अंक में ( फरवरी-अप्रेल, 2012 ) में कुछ कविताएं आई हैं. उनमें ये दोनों कविताएं भी शामिल हैं. )

वह फिर से हवा सा फुर्रsss हो रहा है

सामान्य

फ़लक भी ख़ौफ़ज़दा है उससे
( a poem by ravi kumar, rawatabhata )

एक बच्चा
किवाड़ की दराज़ से बाहर झांका
और गुलेल हाथ में लिए
हवा सा फुर्र हो गया
पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी की तरफ़

बस्ती की जर्जर चौखटों में
ख़ौफ़ तारी हो गया

कोई दहलीज़ नहीं लांघता
पर यह सभी जानते हैं
वह अपनी अंटी में सहेजे हुए
छोटे छोटे कंकरों से
सितारों को गिराया करता है

चट्टानों को बिखराकर लौटती
उसकी मासूम किलकारियां
मुनांदी की मुआफ़िक़
हर ज़ेहन में गूंज उठती हैं

ज़मीं तो ज़मीं
फ़लक भी ख़ौफ़ज़दा है उससे
वह आफ़्ताब को
गिरा ही लेगा बिलआख़िर

वह फिर से
हवा सा फुर्रsss हो रहा है

०००००

रवि कुमार

फ़लक : आसमान, आफ़्ताब : सूर्य, बिलआख़िर : अंततः

( यह कविता, ब्लॉग की शुरूआत में ही पहले भी यहां प्रस्तुत की जा चुकी है )

स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती – कविता – रवि कुमार

सामान्य

स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती
( a poem by ravi kumar )

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स्त्री बाहर नहीं है
वह सिर्फ़ बीमार है

जब स्त्री बीमार होती है
पूरा घर अस्तव्यस्त सा हो जाता है

पुरूष स्त्री बनने के प्रयासों में
चिड़चिड़ा रहे होते हैं

बच्चे यह नहीं समझ पा रहे होते हैं
कि वे खुश हैं या दुखी

स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती

वह नहीं चाहती
कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
आदत हो जाए

पुरुष भी यही चाहते हैं
बच्चे भी इसी में भलाई सी महसूसते हैं

आम सहमति से
आम घरों की स्त्रियां
घर में ही तब्दील हो जाना चाहती है

०००००
रवि कुमार

भूल भुलैया – कविता – रवि कुमार

सामान्य

भूल भुलैया
( a poem by ravi kumar, rawatbhata )

कलाचित्र - रवि कुमार, रावतभाटा

औपचारिकताओं से लदा समय
एक अंतहीन सी भूल भुलैया में उलझा है
जहां दरअसल
आगे बढना और ज्यादा उलझते जाना है

तार्किकता से दूर
गणित का सिर्फ़ यही बचता है
हमारे मानसों में
संख्याएं हमें कहीं का नहीं छोड़ती
वे हमें गिनने की मशीनों में
तब्दील कर देती हैं

जोड़ बाकी लगाते हुए
हमारे लिए हर चीज़ सिर्फ़ साधन हो जाती है
और लगातार इसकी आवृति से
धीरे-धीरे हमारे साध्यों में
कब बदल जाती है
पता ही नहीं चलता

इस तरह चीज़ों में ही उलझे हुए हम
ख़ुद एक चीज़ में तब्दील हो गये हैं
और बाज़ार के नियमों से
संचालित होने लगे हैं

बच्चे पूछ रहे थे कल कि
यह मानवीयता क्या चीज़ होती है?

०००००
रवि कुमार

सत्य की उपलब्धि के नाम पर – कविता – रवि कुमार

सामान्य

सत्य की उपलब्धि के नाम पर
( a poem by ravi kumar, rawatbhata)

चित्र - रवि कुमार, रावतभाटा

सत्य
कहते हैं ख़ुद को
स्वयं उद्‍घाटित नहीं करता

सत्य हमेशा
चुनौती पेश करता है
अपने को ख़ोज कर पा लेने की
और हमारी जिज्ञासा में अतृप्ति भर देता है

कहते हैं सत्य बहुत ही विरल है
उसे खोजना अपने आप में एक काम होता है
वह मथ ड़ालता है सारी बनी-बनाई परिपाटियों को

दरअसल
सत्य कभी एक साथ पूरा नहीं खुलता
वह उघड़ता है परत दर परत
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत

यह अलग बात है कि
हममें से अधिकतर पर
गुजरता है यह दुरूह और दुष्कर
उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर

हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त

यही बाकी बचता है
हमारे पास
सत्य की उपलब्धि के नाम पर

०००००
रवि कुमार