दुनिया भर के प्रेम के लिए
लवली गोस्वामी की कविताएं
इस बार प्रस्तुत हैं लवली गोस्वामी की कुछ कविताएं। दर्शन, मनोविज्ञान एवं मिथकों पर वे गंभीर लेखन करती रही हैं और अब सामने आई उनकी कविताएं भी चर्चा में हैं। उनके सामाजिक सरोकार और ज़मीनी सक्रियता के हासिल, उनकी कविताओं में और अधिक मुखर हो उठते हैं, स्पष्टता से अभिव्यक्त होते हैं। इन दिनों उनकी प्रेम और मिथकों पर भी कुछ कविताएं पढ़ने में आईं जिनमें वर्तमान संदर्भों में इन्हें एक अलहदा नज़रिये से देखा गया है। वे फिर कभी यहां प्रस्तुत की जाएंगी, फिलहाल इन तीन कविताओं से गुजर लिया जाए।
कायांतरण
याद करती हूँ तुम्हें
जब उदासीनता के दौर धूल के बग़ूलों की तरह गुजरतें हैं
स्मृतियों की किरचें नंगे पैरों में नश्तर सी चुभती हैं
याद करती हूँ और उपसंहार के सभी अनुष्ठान झुठलाता
प्रेम गुजरता है आत्मा से भूकम्प की तरह
अब भी सियासत गर्म तवे सी है
जिसमे नाचती है साम्प्रदायिकता और नफरत की बूँदे
फिर वे बदलती जातीं हैं अफवाहों के धुएं में
दंगों के कोलाहल में
अब भी नाकारा कहे जाने वाले लोगों की जायज – नाजायज औलादें
कुपोषण से फूले पेट लेकर शहरों के मलबे में बसेरा करती हैं
होठों पर आलता पोतती वेश्याएं अभी भी
रोग से बजबजाती देह का कौड़ियों के मोल सौदा करती है
मैं वहां कमनीयता नही देखती
मैं वहां वितृष्णा से भी नही देखती
उनसे उधार लेती हूँ सहने की ताक़त
दुःख की टीस बाँट दी मैंने
प्रेमियों संग भागी उन लड़कियों में
जिन्हे जंगलों से लाकर प्रेमियों ने
मोबाइल के नए मॉडल के लिए शहर में बेंच दिया
उन किशोरियों में जिनके प्रेम के दृश्य
इंटरनेट में पोर्न के नाम पर पाये गए
तिरिस्कार का ताप बाँट दिया उनमे
जो बलात्कृत हुईं अपने पिताओं – दाताओं से
जिनकी योनि में शीशे सभ्यता की रक्षा के नाम पर डलवाये गए
तुम्हे याद करती हूँ कि
दे सकूँ अपनी आँखों का जल थोड़ा – थोड़ा
पानी मर चुकी सब आँखों में
हमारी राहतों के गीत अब
लगभग कोरी थालियों की तृप्ति में गूंजते हैं
देह का लावण्य भर जाता है सभ्यता के सम्मिलित रुदन में
कामना निशंक युवतियों की खिलखिलाहट का रूप ले लेती है
अक्सर याद करती हूँ तुम्हे
सभ्यताओं से चले आ रहे
जिन्दा रह जाने भर के युद्ध के लिए
दुनिया भर के प्रेम के लिए
उजली सुबह के साझा सपने के लिए
फिर मर जाने तक जिन्दा रहने के लिए।
०००००
प्रेम के बिंब
यह चाँद के लिए चकोर होने सा नहीं है
प्रेम समय के लिए गोधूलि की बेला है
अँधेरे – उजाले का संधिकाल है
जहाँ न सूरज है न चाँद है
वह समय जब सांध्य तारा अपना अस्तित्व तलाशता है
प्रेम है चीनी कथाओं का वह फल जिससे मन्दाकिनी निकली
जो बहा ले गई आकाश के सबसे अधिक चमकीले दो तारों के मध्य आकाश गंगा
अब एक दिन मुअय्यन है उनके मिलन को पूरे साल में
और मिलन का वह दिन लोगों के लिए उत्सव है
प्रेम का होना वसंत की मीठी बयार नहीं है
यह पतझड़ के पत्तों का रूखापन भी नहीं है
यह बरसात की खदबदाती टपकती हंसी नहीं है
तो शीत की कंपकपाती उजली रात भी नहीं है
यह ऋतुओं का संधिकाल है
वह समय जब लगता है
सुख – दुःख ग्लानि – क्लेश मान – अवमानना का सबसे तीव्र संक्रमण
जब सबसे तुनकमिज़ाज होते हैं सब ख्याल
अपनी ही तासीर अजनबी लगती है
और सबसे प्रिय भोजन भी अरुचि पैदा करता है
जब सब अगले मौसम के फूल फूटने वाले होते
और हवाओं में आने वाले मौसम की आहट होती है
यह न नया होता है न पुराना होता है
घर की औरत के लिए औसारे की तरह
जो न उसका अपना होता है
न बेगाना होता है
प्रेम का होना फूल खिलने सा नहीं है
यह पत्ते झड़ने सा भी नहीं है
अगर यह पूर्णतः पल्ववित पेड़ नहीं
तो बीज से अलग अस्तित्व तलाशता अंकुर भी नहीं
यह आंधी से लड़ता किशोरवय पौधा है
जिसमें लचक है
और टूट जाने का भय भी
जिसमें सामर्थ्य है
और फिर से सँभल जाने का आशय भी
प्रेम तुम्हारी चंचल आँखों की ताब नहीं है
यह मेरी नज़र का मान भी नहीं है
यह कामनाओं के उपवन में उगी अवांछित पौध नहीं
तो ज़रुरत से सींच कर उगाया गया अलंकरण भी नहीं
यह चाय बागान में लगाया गया सिल्वर ओक है
वह विश्राम स्थल जो हमारी निरीहता के पलों में
खुद टूट कर हमारी आत्मा को निराशा की तेज़ धूप
और हक़ीक़तों की उत्ताल हवा से बचाता है
०००००
स्वीकृतियाँ
मैं हमेशा अपने भाव छिपाती रही खुद से
भावनाओं का आना कविताओं का आना था
मुझे भय लगता रहा मन में कविता के आने से
कटुता और रुक्षता के रीत जाने से
तितलियों के रंगों से अधिक उनकी निरीहता से
फूलों की महक से अधिक उनकी कोमलता से
बारिश की धमक से अधिक ख़ुद भींग जाने से
शक्तिशाली होने का अर्थ उन्माद के क्षणों में एकाकी होना है
विस्तृत होने का अर्थ आघात के लिए सर्वसुलभ होना है
सबसे गहरी अँधेरी खाईयों की तरफ बारिश का पानी प्रचंड वेग से बहता है
ऊँचे और विस्तृत पहाड़ सबसे अधिक भूस्खलन के शिकार होते हैं
बड़े तारे सबसे शक्तिशाली ब्लेक हॉल में बदलते हैं
ठूँठ कठोरता और पौधे लचक के कारण बचे रहते हैं
फलों से लदे विशाल हरे पेड़ आंधी में सबसे पहले टूटते हैं
महानता के रंग -रोगन नही चाहिए थे मुझे
पर इंकार के सब मौके मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए
घोषणापत्रों पर मुझे आह्वान के नारों की तरह उकेर दिया गया
कोई व्यंग्य से हँसा मैं कालिदास हुई
किसी ने अपमानित किया मैं शर्मिष्ठा हुई
किसी ने नफ़रत की मैं ईसा हो गई
जब-जब किसी ने अनुशंसा की
मैं सिर्फ सन्देश रह गई
मैं सिर्फ शब्द बनी रही
सबने अपने-अपने अर्थ लिए
मैं सापेक्ष बनी रही
सब मुझे अपने विपक्ष में समझते रहे
जब भी मौसम ने दस्तक दी मैंने चक्रवात चुने
जब गर्मियाँ आई मुझे दोपहर की चिलचिलाती धूप भली लगी
जब सर्दियाँ आई माघ की ठंढ
(यूँ ही नही कहते हमारे गांव में माघ के जाड़ बाघ नियर)
सामर्थ्य नही था मुझमे पर विवशता में हिरण भी आक्रामक होता है
मुझे उदाहरण भी नही बनना था पर मिसालों के आभाव ने समाज की बुद्धि कुंद कर दी
और मुझे योग्यता के विज्ञापन में बदल दिया गया
सिर्फ इसलिए किसी को गैरजरुरी सी शुरुआत में बदल जाना था
महानताओं ने धीरे से क्षमा कर दी उसकी गलतियाँ
पलायन एक सुविधापूर्ण चयन होता है
चुनौतीपूर्ण चयन अहम का आहार होता है
जिसकी बलि चढ़ा दी जाये वह समर्थ नही कहलाता
वरना समाज अभिमन्यु की जगह अरावन की प्रशस्ति गाता
०००००
लवली गोस्वामी
दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.