चित्रकार के प्रेम की अकथ कथा
( अभी फेसबुक पर एक नोट के रूप में लवली गोस्वामी का राजा रवि वर्मा और उनके काम की पड़ताल करता यह महत्त्वपूर्ण आलेख पढ़ने को मिला. आवश्यकता महसूस हुई कि इसे नेट पर सामान्य रूप से उपलब्ध करना चाहिए. इसलिए उनकी अनुमति से यहां उस आलेख की अविकल प्रस्तु्ति की जा रही है. )
किसी ऐसे चरित्र पर लिखना वाकई मुश्किल होता है जो आपको कहीं प्रभावित करता हो। मनोगतता, भावना अक्सर वस्तुगतता पर भारी पड़ती है और आप निरपेक्ष मूल्यांकन से चूक जाते हैं, इसी एक समस्या के कारन मैं राजा रवि वर्मा पर लिखने से हमेशा बचती रही हूँ । अधिक समय नही बीता है जब किसी फिल्म की वजह से राजा रवि वर्मा का नाम भारत की आम जनता तक पहुंचा, यहाँ मुझे कहना होगा कि हम भारतीय अपनी बौद्धिक सम्पदा को पहचानने और उसे सम्मान देने के मामले में बहुत कृपण हैं, जिस चित्रकार ने पुराणो से ईश्वर को घर के कैलेंडरों तक पहुँचाया वह साधारण भारतीय के लिए लगभग गुमनाम ही रहा. यह कुछ उस तरह की घटना है कि भारत के अधिकतर लोग चर्चित कविताओं की पंक्तियों का उपयोग तो अपनी रोजाना की बातचीत में कर जाते हैं परन्तु यह नही जानते कि उस कवि का नाम क्या है। इस प्रसंग को यहीं छोड़ते हैं. हम रंजीत देसाई के मूलतः मराठी में लिखे एवं विक्रांत पाण्डेय द्वारा अंग्रेजी में अनूदित राजा रवि वर्मा की कहानी के आधार पर कला और प्रेम के कुछ रोचक दृश्य सामाजिकता और मिथकीय चेतना के आलोक में देखते हैं, जिससे इस महान (मुझे मेरे प्रगतिशील दोस्त क्षमा करें, यह दार्शनिक समीक्षा नही है 🙂 ) चित्रकार के जीवन में प्रेम और कला के समेकित प्रभाव को समझ पाएं।
जब आप कला की बात करते हैं तो वह आपके मंतव्य को सबसे सुन्दर रूप में जनता तक ले जाने का माध्यम होती है। कला मानव की वह खोज है जिसने निरंतर अपने हर पुराने फार्म का अतिक्रमण किया है और नए रूपों में नए सलीके से फिर से मनुष्यों के मध्य लौटी है। रवि वर्मा ने चित्रकारिता को ही अपना माध्यम क्यों चुना यह बताते हुए रंजीत देसाई के रवि वर्मा भी कला के एक नए रूप का अभिर्भाव कर रहे होते हैं। मंदिरों में पाषाण – शिल्प के सुन्दर, कलात्मक और भव्य रूप देखकर भी रवि वर्मा को उनमे एक कमी महसूस होती है। कमी यह की पत्थर से बनी प्रतिमाएँ मुद्रा तो दिखा रही हैं परन्तु भावनाएं नही। खजुराहो में श्रृंगार तो है कामना नही उत्तेजना नही. एक सजग मनुष्य के लिए चहरे पर उभरती रेखाएं और मांशपेशियों के गणित का प्रभाव आज से दो सौ साल पहले मायने रखता था यही बात उसे रवि वर्मा बनाती है। मुझे अक्सर लगता है कि सभ्यता की अपनी गति होते हुए भी वह उसी मनुष्य को किसी परिधटना के लिए चुनती है जो उस वक़्त में सबसे श्रेष्ठ प्रतिभा का होता है , सबसे संवेदनशील होता है और साथ ही साथ निडर भी। रवि वर्मा में यह सब था। एक अनुशासित युवा जिसने कला के लगभग हर रूप का विधिवत अध्ययन किया फिर वह नृत्य हो , संगीत हो , संस्कृत साहित्य हो या चित्रकला। वह युवक जो स्वपनदर्शी था, महत्वकांक्षी और आदर्शवादी भी। उसने महसूस किया कि मंदिरों की पाषाण मूर्तियों में नज़र को बांध लेने वाली भव्यता तो है पर मन को संवेदना से भर देने वाली बारीक़ी नही , मूर्तिओं में भय, करुणा , उपेक्षा , अपमान , कामना , प्रेम , वातसल्य , मान , विरह और दर्प का चित्रण नही है। जनता के जीवन की दशा उस वक़्त कला के लिए आलोचना की कसौटी नही थी , विषय पौराणिक ही हो सकते थे और हुए. यह भी कालचक्र की गति ही है।भावों के बारे में चित्रकार का मत कई जगह स्पष्ट है वह उर्वशी पुरुरवा के चित्र बनाते कठिनाई महसूस करता है क्योंकि उसे रात्रि के प्रणय क्षणों के चिन्ह और विरह का दुःख एक साथ चित्रित करना है। भावों की यह छटा रवि के चित्रों में कई जगह दिखती है। जब वे शकुंतला के जन्म को चित्रित करते हैं तब विश्वामित्र के चहरे की उपेक्षा और मेनका के मुख पर दुःख के चिन्ह स्पष्ट है। सत्यवती और शांतनु के चित्र में सत्यवती के मुख का मान स्पष्ट है। द्रौपदी का भय अपमान स्पष्ट है।
तो यह युवा चित्रकार जैसा की होता आया है सबसे पहले प्रेम से प्रभावित होता है। विवाह के बाद प्रथम रात्रि में काव्यों के दृश्यों की कल्पना करते रवि वर्मा के मन को ठेस पहुचंती है जब उसकी नवविवाहिता पारम्परिक पत्नी दीपक बुझा कर अभिसार के लिए प्रवृत होती है. यह अस्वीकरण साधारण है परन्तु साधारण नही भी है। परम्परा एक बाध्यता की तरह होती है वह मानव मन विकास को भी अवरुद्ध भी करती है। रवि वर्मा की पत्नी चित्रकला को निकृष्ट कार्य समझती है एवं कला उसके लिए एक व्यर्थ वस्तु (अवधारणा )है।निराश रवि वर्मा अपने चित्र की प्रथम नायिका के रूप के घरेलू सहायिका को चुनते हैं और इससे “नायर स्त्री ” के प्रसिद्द चित्र के साथ उनकी चित्रकला की यात्रा का आरंभ होता है।
प्रेम निश्चय ही जैविक कारणों से, मनुष्य के अंदर संचारित होती सबसे सुन्दर और पुरातन भावना है। इसके सम्प्रेषण हेतु मानवीय प्रज्ञा अलग – अलग समय में अलग अलग माध्यमों का उपयोग करती रही है. मानव सभ्यता के विकास के साथ नित्य जटिलतम होती जाती मानवीय चेतना प्रेम और कला के मध्य निरंतर एक सामंजस्य सा ढूंढती रही है। अगर प्रेम सन्देश है तो दुनिया की हर कला उसका माध्यम भर है। महज एक मानवीय भाव होते हुए भी यह जगत की उत्पति और प्रकारांतर से विनाश के कारणों का मूल भी है। संसार में यूँ तो जीवधारियों के मध्य कई तरह के सम्बन्ध हो सकते हैं पर जैविकता से आबद्ध होने वाले दो ही सम्बन्ध होते हैं एक तो संतान का उसके माता – पिता से दूसरा पुरुष का स्त्री से यौन सम्बन्ध जो पहले तरह के सम्बन्ध का कारन भी है। यही प्रेम स्त्री के लिए परिवार संस्था के निर्माण के बाद बहुत जटिल रूप ले लेता है। रवि के समाज की स्त्री भी भय, कामना , दर्प और रुमान के भावों को एक साथ महसूस कर रही होती है। अहम के टकराने के परिणाम स्वरुप रवि वर्मा पत्नी का आवास छोड़कर अपने घर वापस लौट आते हैं। यहाँ यह बताया जाना आवश्यक है कि उनके समाज में मातृसत्तात्मक चलन है जिसमे पुरुष को विवाह के बाद पत्नी के आवास में रहना होता है। अहम का यह संघर्ष तब तक जारी रहता है जब तक रवि की पत्नी की मृत्यु नही हो जाती।
रवि चित्रकला में ख्याति प्राप्त करने के अपने उद्देश्यों की पूर्ती के लिए मुंबई आते हैं। यहाँ उनके जीवन में कथा – नायिका सुगंधा का प्रवेश होता है. सुगंधाबाई का चरित्र एक दुःसाहसी स्त्री का चरित्र है। प्रेम में पड़ी स्त्री का मूर्खता की हद तक दुःसाहसी होना एक कुंठाग्रस्त और पारम्परिक समाज में कोई आश्चर्जनक बात नही है। वर्जनाओं से ग्रस्त रूढ़िवादी मन प्रेम में उपलब्ध निर्बाध उड़ान का आनंद लेना चाहता है और सुगंधा धीरे – धीरे रवि वर्मा के क़रीब आती चली जाती है। समाज जहाँ पुरुष को उसकी अपेक्षित साथिन चुनने के कुछ अवसर उपलब्ध कराता हैं वहीँ स्त्री को वस्तु की तरह किसी पुरुष से बांध दिया जाता है तो सुगंधा जब रवि के प्रेम में पड़ती है तब यह कहना कहीं से अतिश्योक्ति नही कि यह स्त्री के मन का समाज की इस व्यवस्था से प्रतिशोध है। प्रेम यहाँ केवल एक निष्कलुष सी भावना बनकर सामने नही आता इसके पीछे सदियों से प्रताड़ित हुई स्त्री की पीड़ा के अवसान की कोशिश है , भले ही कि यह प्रतीकात्मक हो ..क्षणिक हो।
यह प्रेम किसी की कामना का पात्र होने की अदम्य इच्छा भी है। खुद को पौराणिक आख्यानो के लिए चित्रकार के समक्ष निर्वसन करती सुगंधा में जहाँ प्रेमिका का रोमांच है वहीँ प्रकृतिजनित पूर्णता की अभिलाषा भी है। वहीँ रवि वर्मा यह चाहते हैं कि सुगंधा अपने भावों से मुक्त होकर चित्रित किये जाने वाले चरित्र के भावों का अंगीकार कर ले इसलिए वे सुगंधा को दो दिन सिर्फ नग्न अपने समक्ष अन्य साधारण कार्य करने को कहते हैं पर उसका चित्र बनाना नही आरम्भ करते। तीसरे दिन सुगंधा क्रोध में रवि से पूछती है कि क्या यही सब काम करवाने के लिए मुझे निर्वसन तुम्हारे समक्ष आने का आदेश दिया था ? इसी क्षण चित्रकार को सुगंधा में नग्न उर्वशी का साहस और उन्मुक्तता दिखाई देती है और वह उसके चित्र बनाने को प्रवृत होता है। चित्रकार का तर्क है कि अब सुगंधा अपने “स्व ” से मुक्त है। यह तर्क भ्रामक है और सुगंधा अपने स्व के किंचित भी मुक्त नही है , सिर्फ उसके भाव कुछ समय के लिए परोक्ष हुए हैं.यह कैसे सम्भव था कि किसी को अपने भावों का आधार माने बिना एक स्त्री उसके समक्ष कामना , सुख , विरह आदि के भावों का प्रदर्शन कर पाती। एक अत्यंत साधारण भावुक स्त्री बिना प्रेम के किसी के समक्ष निर्वसन चित्रण के लिए तैयार हो पाती। चित्रकार असम्पृक्त है और असम्पृक्त स्त्री सम्पृक्ता में बदलती जाती है। फिर वही होता है जो अपेक्षित है , चित्रकार के उद्देश्य के साथ उसकी असम्पृक्तता भी खत्म हो जाती है और वह आकंठ प्रेम में डूबी सुगंधा की ओर आकर्षित होता जाता है. वह कभी उसमे माता कभी प्रेयसी को देखता है। कलाकार के लिए भावों का निर्माण और उनमें परिवर्तन बहुत हद तक अभ्यास परक घटना है परन्तु नायिका के लिए यह न अभ्यास में है न सायास निर्मित किया गया है।
जैसे प्रेम की नियति में उसकी तीव्रता है ..वैसे उसका मध्यम होना है ,जैसे घनिष्ठता है …वैसे सरल होना है ,जैसे आकर्षण हैं.. वैसे एक दिन विकर्षण तय है। जहाँ प्रेम में आकंठ डूबी सुगंधा अभिसार के बाद खुद को दर्पण में देखती समर्पिता होती जाती है , रवि के लिए यह सिर्फ मानव होने का सौंदर्य भर होता है। दूसरे दिन सुगंधा लौटती है और रवि वर्मा सामान बांधकर अपने घर केरल लौटने को तैयार हो रहे होते हैं। सुगंधा जो अधिकार से रवि को रोकने की स्थिति में है न सवाल पूछने का अधिकार रखती है रवि को बिना कुछ कहे जाने देती है। रवि लौट कर आने का वायदा करके चले जाते हैं। प्रेम एक भ्रामक अवधारणा है , भ्रामक इसलिए कि यह परम्परा से अपनी जड़ें पाता है इसलिए संसार के हर दूसरे मनुष्य के लिए यह अलग होता है. सुगंधा के लिए भी प्रेम की अलग परिभाषा है और रवि के लिए अलग। उन्माद के क्षणों मे इन परिभाषाओं का आभास किसे होता है ? या ज्यादा सही तरीके से सवाल को रखें तो करना कौन चाहता है ? भाव भी अंततः मनुष्य के अंतस के लिए भोजन की तरह हैं , खासकर तब जब वह किसी रचनात्मक कार्य से जुड़ा हो , यह चित्रकार के लिए शब्दसः सत्य था परन्तु सुगंधा के लिए प्रेम के अलावा जीवन का कोई अन्य उदेश्य नही था। बस यही बात उसमे धीरे – धीरे आत्महंता प्रवृति पैदा कर देती है।
वहीँ रवि के लौटने पर उनकी पत्नी उनका स्वागत ही करती है, रवि उसे अपने साथ अपने पितृ आवास पर जाकर रहने को कहते हैं जिसे वह अपनी परम्पराओं के विरुद्ध बताकर अस्वीकार कर देती है। यह देखने लायक विरोधाभाष है कि रवि यहाँ पत्नी को परम्पराओं को तोड़ने के लिए मनाने की कोशिश करते हैं परन्तु खुद वे समुद्र पार न करने की पुरातन भारतीय परम्परा को मानने की वजह से यूरोपीय देशों में जाकर चित्रकला की नयी तकनीकों को सीखने से इंकार कर देते हैं। सुगंधा के चित्रों में भावों के इन्द्रधनुष देखकर पुरू (रवि की पत्नी ) यह समझ जाती है कि उसके और रवि के क्या सम्बन्ध हैं। वह रवि से प्रश्न करती है। रवि का उत्तर रोचक है। वे जवाब देते हैं कि कलाकार कामना और प्रेम से ओतप्रोत होते हैं और बहुधा वह परवान चढ़ती ही है। सोचने वाली बात है कि यह जवाब क्या एक कलाकार का है ? या एक पुरुष का जो एक सुविधाभोगी स्थाई साथिन के आभाव में कामना के तर्क का , प्रेम की क्षणिकता का अपने बचाव के लिए सहारा ले रहा है ? जबकि वह सुगंधा से लौट कर आने का वायदा करके आया है फिर वह पत्नी को किस मंतव्य के तहत साथ ले जाना चाहता है? और अगर यह कामना का शुद्ध रूप था तब सुगंधा से प्रेम के प्रदर्शन का अभिप्राय क्या था ? अपनी कला को आकर देने हेतु किसी सुन्दर वस्तु का चित्रण अथवा पुरुष की अदम्य जैविक इच्छा का प्राकृतिक निर्वहन ? इन सवालों के उत्तर हम यही छोड़ते हैं।
रवि वर्मा की अदूरदर्शिता और लापरवाही से सुगंधा के चित्र सार्वजनिक हो जाते हैं। दूसरी ओर यथास्थिति वाद के समर्थक उनपर अश्लीलता और हिन्दू धर्म को क्षति पहुचने का आरोप लगाकर उनपर मुक़दमा कर देते हैं। हिंदूवादियों का तर्क होता है कि देवी देवताओं के नग्न चित्रण के कारन प्लेग की आपदा का उन्हें सामना करना पड़ रहा है, इसलिए यह चित्र प्रतिबंधित किये जाने चाहिए और रवि वर्मा को सजा मिलनी चाहिए। रवि सुगंधा के सामने विवाह प्रस्ताव रखते हैं जिसे सुगंधा सामाजिक वर्ग – चरित्र का तर्क देकर नामंजूर कर देती है। सुगंधा अपने अपमान को तो बर्दाश्त कर लेती है परन्तु रवि के मुक़दमा हार जाने के भय से ग्रसित होकर और उनके लगातार हो रहे अपमान से त्रस्त होकर फैसला आने के दिन पर आत्महत्या कर लेती है। रवि मुक़दमें विजयी होते हैं पर रवि सुगंधा की अनुपस्तिथि में पौराणिक – काल्पनिक चित्र बना पाने में असक्षम हो जाते हैं। प्रेम कथा का दुखद अंत होता है।
अब जरा रवि वर्मा के चित्रों के आलोचनाओं पर बात कर लें। आलोचकों का आरोप है कि अगर रवि चित्र बनाकर देवताओं को मंदिरों से बाहर नही निकालते तो भारत में धर्म की जड़ें नही मजबूत होती, देवता साधारण भारतीय परिवारों के पूजा घरों तक नही पहुँचते । यह आरोप अनर्गल है। समाज की अपनी गति होती है धर्म का निर्माण एवं उसका लोकप्रियकरण एक सामाजिक गति है। हर प्रकार की कला को पहला आश्रय राजा अथवा धर्माधिकारी से ही मिला है। हाँ एक चित्रकार की तरह रवि से हम यह अपेक्षा कर सकते थे कि वे अपनी कला में जनोन्मुख हो जाते अंतिम समय में उन्होंने प्रयास भी किया पर बहुत सफल नही रहे , शायद भावना भी वही सम्प्रेषण में आ पाती है जिसपर हम विश्वाश कर पाते हैं। यही रवि के साथ हुआ तथापि उनके अद्भुत कौशल और सौंदर्यबोध को अनदेखा करना आलोचना को जबरदस्ती एकपक्षीय बनाना ही है। इस कथा में रंजीत देसाई ने कितना सत्य लिखा है कितनी कल्पना का प्रयोग किया है, यह तो शायद हम कभी जान नही पाएंगे परन्तु यह तथ्य निर्विवाद है कि रवि वर्मा के चित्रों के रूप में उनकी कल्पना और कला की जो विरासत हमारे पास संरक्षित है वह उन्हें निश्चय ही उनके यूरोपीय समकालीन चित्रकारों के समक्ष स्थान देती है।
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लवली गोस्वामी
दर्शन और मनोविज्ञान की गहन अध्येता. ब्लॉग तथा पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर लेखन. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ शीघ्र प्रकाश्य. वाम राजनीति में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता. इन दिनों बैंगलोर में.
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रवि वर्मा के जीवन और चित्रकारी के विषय में जो विश्लेषणात्मक जानकारी यहाँ दी गयी है… ये महत्वपूर्ण जान पड़ती है… क्योकि मुझे अभी तक इनके बारे में कुछ खास पढ़ने को नहीं मिल सका … आपको धन्यवाद रवि कुमार जी और लवली जी को बधाई ।