स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती – कविता – रवि कुमार

सामान्य

स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती
( a poem by ravi kumar )

rk10

स्त्री बाहर नहीं है
वह सिर्फ़ बीमार है

जब स्त्री बीमार होती है
पूरा घर अस्तव्यस्त सा हो जाता है

पुरूष स्त्री बनने के प्रयासों में
चिड़चिड़ा रहे होते हैं

बच्चे यह नहीं समझ पा रहे होते हैं
कि वे खुश हैं या दुखी

स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती

वह नहीं चाहती
कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
आदत हो जाए

पुरुष भी यही चाहते हैं
बच्चे भी इसी में भलाई सी महसूसते हैं

आम सहमति से
आम घरों की स्त्रियां
घर में ही तब्दील हो जाना चाहती है

०००००
रवि कुमार

21 responses »

  1. बहुत-बहुत गहरी बात कही है रवि जी, छोटे छोटे निष्कर्ष हैं… दूर तक जाती है बेधती हुई…

    पुरूष स्त्री बनने के प्रयासों में
    चिड़चिड़ा रहे होते हैं

    बच्चे यह नहीं समझ पा रहे होते हैं
    कि वे खुश हैं या दुखी

    स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती

    वह नहीं चाहती
    कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
    आदत हो जाए

  2. सूक्ष्म निरीक्षण है इस कविता में।
    किसी ने सही कहा है जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।
    पर रवि ही कवि हो जाए तो बात ही कुछ और है।
    बीमार तो वकील भी नहीं होना चाहते,
    उन के मुवक्किल का काम कौन करे?
    उन का मुवक्किल किसी दूसरे के पास क्यों जाए?

  3. रवि बाबू.बहुत गहरी बात कही है. आम आदमी की कहानी को बयान करती नज़्म है.स्त्री के हम बहुत मायनों में ऋणी है.माने ना माने स्त्री के बदले में पुरुष आधा काम करते हैं और दुगुना जताते हैं. मेरा तो यही विचार है. आप क्या सोचते हैं?

  4. .
    .
    .
    स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती

    वह नहीं चाहती
    कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
    आदत हो जाए

    बहुत गहरी बात…वाकई सूक्ष्म निरीक्षण…

    दिन रात देख रहा हूँ…
    अपने आस-पास की स्त्रियों को…
    घर बनाते-सजाते-संवारते…
    घर में ही तब्दील होते…
    कभी आम सहमति से…
    और कभी स्वयं उन की ही
    घर बनने की इच्छा से भी…

    क्यों ऐसा होने देती हैं ?
    हमारे घर की स्त्रियां…

    यह एक यक्ष प्रश्न है/रहेगा !

  5. मेरी एक मित्र हैं रुपाली सिन्हा…उनकी एक कविता में बिंब यह है कि घर हमेशा स्त्री की पीठ पर सवार होता है। वह कहीं भी जाये, कुछ भी करे पीठ उस बोझ से मुक्त हो ही नहीं पाती…इस कविता से भी वही भाव एक अलग संदर्भ में दिखता है…

  6. आम सहमति से
    आम घरों की स्त्रियां
    घर में ही तब्दील हो जाना चाहती है

    स्त्री जीवन का सच लिख दिया……………बेहद गहन चिन्तन्।

  7. आप सभी भ्रम में हैं, घर स्‍त्री का सच तो है पर वह बेशक चाहती है कि घर उसके बिना दुरुस्‍त रहना सीख जाए, बल्कि रहे। पर यह उसकी लाख कोशिशों के बावजूद संभव नहीं हो पाता। दिवास्‍वप्‍न है अभी यह।

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s