स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती
( a poem by ravi kumar )
स्त्री बाहर नहीं है
वह सिर्फ़ बीमार है
जब स्त्री बीमार होती है
पूरा घर अस्तव्यस्त सा हो जाता है
पुरूष स्त्री बनने के प्रयासों में
चिड़चिड़ा रहे होते हैं
बच्चे यह नहीं समझ पा रहे होते हैं
कि वे खुश हैं या दुखी
स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती
वह नहीं चाहती
कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
आदत हो जाए
पुरुष भी यही चाहते हैं
बच्चे भी इसी में भलाई सी महसूसते हैं
आम सहमति से
आम घरों की स्त्रियां
घर में ही तब्दील हो जाना चाहती है
०००००
रवि कुमार
बहुत-बहुत गहरी बात कही है रवि जी, छोटे छोटे निष्कर्ष हैं… दूर तक जाती है बेधती हुई…
पुरूष स्त्री बनने के प्रयासों में
चिड़चिड़ा रहे होते हैं
बच्चे यह नहीं समझ पा रहे होते हैं
कि वे खुश हैं या दुखी
स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती
वह नहीं चाहती
कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
आदत हो जाए
bahut khubsurat prastuti….
सूक्ष्म निरीक्षण है इस कविता में।
किसी ने सही कहा है जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।
पर रवि ही कवि हो जाए तो बात ही कुछ और है।
बीमार तो वकील भी नहीं होना चाहते,
उन के मुवक्किल का काम कौन करे?
उन का मुवक्किल किसी दूसरे के पास क्यों जाए?
रवि बाबू.बहुत गहरी बात कही है. आम आदमी की कहानी को बयान करती नज़्म है.स्त्री के हम बहुत मायनों में ऋणी है.माने ना माने स्त्री के बदले में पुरुष आधा काम करते हैं और दुगुना जताते हैं. मेरा तो यही विचार है. आप क्या सोचते हैं?
आपने व्यंजना मे स्त्री जीवन की समूची त्रासदी को लिख डाला है ………हार्दिक बधाई ।
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स्त्री बीमार भी नहीं होना चाहती
वह नहीं चाहती
कि घर को उसके बिना दुरस्त रहने की
आदत हो जाए
बहुत गहरी बात…वाकई सूक्ष्म निरीक्षण…
दिन रात देख रहा हूँ…
अपने आस-पास की स्त्रियों को…
घर बनाते-सजाते-संवारते…
घर में ही तब्दील होते…
कभी आम सहमति से…
और कभी स्वयं उन की ही
घर बनने की इच्छा से भी…
क्यों ऐसा होने देती हैं ?
हमारे घर की स्त्रियां…
यह एक यक्ष प्रश्न है/रहेगा !
…
मेरी एक मित्र हैं रुपाली सिन्हा…उनकी एक कविता में बिंब यह है कि घर हमेशा स्त्री की पीठ पर सवार होता है। वह कहीं भी जाये, कुछ भी करे पीठ उस बोझ से मुक्त हो ही नहीं पाती…इस कविता से भी वही भाव एक अलग संदर्भ में दिखता है…
बहुत खूब रवि जी,
बहुत गहरी कविता
आम सहमति से
आम घरों की स्त्रियां
घर में ही तब्दील हो जाना चाहती है
स्त्री जीवन का सच लिख दिया……………बेहद गहन चिन्तन्।
kya har istri maaa… jaisi ho sakti hai? ghar …………… ha istri chahe to kai makan ghar ban jai lekin usk liy use maaa……….. banna hoga ….. sabki maa…………….??????????
बिल्कुल सही और गहरी बात कही आपने इस रचना के माध्यम से. साधुवाद!
शब्द-शब्द भेदता हुआ….एक काबिल रचना
kavita achhi lagi……stri man ko bariki se pakda-samjha hai.
स्त्री जीवन का सच लिख दिया
बेहद गहन चिन्तन्।
sahaj shabdo me bhavo ki abhivyakti kavita ko sunder aur hamesha avismarniya bana deti he.
Kavita me dum he.Achhi lagi.
आप सभी भ्रम में हैं, घर स्त्री का सच तो है पर वह बेशक चाहती है कि घर उसके बिना दुरुस्त रहना सीख जाए, बल्कि रहे। पर यह उसकी लाख कोशिशों के बावजूद संभव नहीं हो पाता। दिवास्वप्न है अभी यह।
तस्वीरें देखकर लगता है प्रस्तुति बहुत अच्छी रही होगी । अनाम का टीमवर्क काबिले तारीफ है
bahut achhi kavita
अन्तिम तीन पँक्तियाँ लाजवाब और अलग बात कहती।
ऐसा नही लगता …एक हद के बाद ….स्त्रिओं में समाया डर उन्हें ऐसा करने को मजबूर करता है …
मुझे तो ऐसा ही लगता है … 🙂
अच्छी लगी यह कविता।
शुभकामनाएं।