सूरज उगाया जाता फूलों में यदि – शमशेर बहादुर सिंह
( a kavita poster by ravi kumar, rawatbhata)
शब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं. दरअसल हथौडे़ की तरह पड़ने और बुरी तरह झिंझोड़ डालने वाली उपमाओं के पीछे होता यह है कि इन शब्दों ने हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात किया है, हमें हमारी सीमाएं बताई हैं, और हमारी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, ऐसे भी सोचा जाना चाहिए.
जाहिर है कविता इस तरह हमारी चेतना के स्तर के परिष्कार का वाइस बनती है.
इस बार का कविता-पोस्टर है, शमशेर बहादुर सिंह की ऐसी ही कविता पंक्तियों का.
बडे़ आकार में देखने के लिए इस पर क्लिक करें……
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रवि कुमार
बेमिसाल .शमशेर जी का नाम सुनकर खींचा चला आया……ओर निराश नहीं हुआ….
sunder rachana
बेहतरीन रचना पर बेहतरीन पोस्टर !
रवि जी! मुझे तो आपही प्रभावित करते हैं आजकल।
मैं अपनी
शोला हो चुकी निगाहों के जरिए
फ़लक की बुलन्दियों से
फिर से मुख़ातिब होना चाहता हूं।
आपका हिन्दी और उर्दू का यह प्रयोग मुझे जंचता है।
व्यक्तिवाद के घटाटोप में सामूहिकता की झलक दिखलाती कविता इस बार भी आपने कविता के अनुरूप रेखांकन किया है।
sun ati sun are yar atisun…..dar
शमशेर साहब भी नकारे हुए समाज और ज़रूरत पर विश्वास करने के लिए कविता सृजन आवश्यक समझते हैं..धूमिल,पाश,मुक्तिबोध,अज्ञेय{अज्ञेय शायद नहीं}, ये सभी एक लम्बी डगर पर चलने वाले कवि हैं,, कवि क्या हैं विरोध हैं, या एक उत्तेजना है,,जो अपने विरोध को अपने शब्दों में आने से नहीं रोक पाते हैं,इन सभी की कविता वास्तव में एक तीव्र उत्तेजना को हौले हौले शब्दों में ढालते हैं, क्यूंकि ये सभी समझते हैं,,कि ऐसी बातों को सीधे पटक देना अपने दाएं हाथ के खिलाफ खड़े होने जैसा है. और मुक्तिबोध चाहे अज्ञेय फेंटेसी से बातों को रंग रूप देते रहते हैं, मगर इनके अन्दर एक विरोध भरा ही रहता है..तभी तो ” ऐ इंसानों ओस न चाटो,अपने हाथों पर्वत काटो” या फिर ” साँप तुम तो सभ्य नहीं हुए “, जैसी रचनायें सामने आती हैं.मैं शब्द लोलुपता या फिर फेंटेसी को कम से कम इस अर्थ के लिए सही मानता हूँ..शमशेर कि इस कविता को चुनने के लिए धन्यवाद, ब्लॉग अच्छा है,, कलाकृति का भी अच्छा प्रयोग है, और कुल मिलकर ब्लॉग अच्छा है..
इस सड़ी हुयी व्यवस्था को हमने यूँ स्वीकार कर लिया,
जैसे मुंह में आये बलगम को फिर से गुटक लिया..
“भूपेंद्र कौशिक”
शमशेर साहब समाज की नकारी हुयी और जो वक़्त के अनुसार ज़रूरी है ऐसी बातों को उछालना ज़रूरी समझते हैं, इस कवायद में धूमिल,पाश,मुक्तिबोध,अज्ञेय {शायद अज्ञेय नहीं} आदि मुख्य कड़ी हैं, इनकी कविता कहीं कहीं बहुत तीखा विरोध है, वास्तव में ये विरोध ही है मौजूदा हालत के खिलाफ जिसे ये साहित्य के परदे में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं, ऐसा इसीलिए ज़रूरी है की लोगों का साहित्य के प्रति विश्वास एवं आस्था जुडी रहे, और किसी व्यक्ति विशेष के कारण साहित्य से घृणा न हो जाये, तभी तो ” सांप तुम तो सभ्य नहीं हुए”या फिर ” ऐ इंसानों ओस न चाटो” जैसी कवितायेँ सामने आती हैं..शमशेर भी एक अत्यंत गंभीर हैं, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ” मैं सूरज को डूबने नहीं दूंगा” फेंटेसी मैं लपेटा हुआ यथार्थ एवं मानव शक्ति का अद्भुत प्रदर्शन है, शमशेर की ये कविता भी यही तो कह रही है..और अगर किसी के पास विद्रोह है, तो उसे साहित्य,फेंटेसी एवं शब्द लोलुपता से जुड़ना ही होगा, नहीं तो उसे स्वीकार न करना लोगों की आदत मैं आ जायेगा..शमशेर की कविता का चयन आपने अच्छा किया है, और कलाकृति का क्या कहना..वाह..पूरा ब्लॉग जानकारी से अटा पड़ा है..
निशांत कौशिक
शमशेर जी की कविता और आपकी बेहतरीन प्रस्तुति आनन्द आ गया.
ek aur shandar kavita aur kavita poster
एक साथ सभी कार्य करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है मेरे भाई
हमने भी सोचा था साथ साथ …………………………
लेकिन कोई साथ नहीं रहा
ओर शायद अकेले रहने से ही तरक्की होती हो, यह सोच कर सभी अलग होने लगे है तो | ये सशक्त कविता भी बेचारी सी लग रही है |
क्षमा सहित अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ |
बेहतरीन कविता पड़ने को मिली अब तो आपके ब्लॉग पर आता ही रहूँगा.
Ek dhuandar atishbazi ap kar rahein hain . Itna’ progressive’ collection aur selection hai apka. main in dinon seasion ka shikar hoon.college mein june se hi afratafri achi huyee hai isliye ‘ast’ hoon —
Dr.R.Ramkumar
Bahut Hi umda Rachna mahoday!
bahut khub surat prastuti
vah! raviji, bahut achcha aandolan kah skte hain ise. badhai.
-satyanarayan soni, lect(hindi), govt.sen.sec.school, parlika(hanumangadh)335504, phone-9602412124
Ravi Kumr ji, Aap to bahut hi accha are suljha hue likhte ho. Bade sundar chitra banaye hai. Bahut bahut badhai……….
aal the goodest.