विश्व गुरू होने का ढिंढ़ोरा पीटने वालों – सूरजपाल चौहान
( a kavita poster by ravi kumar, rawatbhata)
शब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं. दरअसल हथौडे़ की तरह पड़ने और बुरी तरह झिंझोड़ डालने वाली उपमाओं के पीछे होता यह है कि इन शब्दों ने हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात किया है, हमें हमारी सीमाएं बताई हैं, और हमारी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, ऐसे भी सोचा जाना चाहिए.
जाहिर है कविता इस तरह हमारी चेतना के स्तर के परिष्कार का वाइस बनती है.
इस बार का कविता-पोस्टर है, सूरजपाल चौहान की ऐसी ही कविता पंक्तियों का.
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रवि कुमार
एक मुकाबिल कविता के असर को आप ने अपनी तूलिका से कई गुना कर दिया है। रचना को जैसे स्वर मिल गए हों।
सूरज पाल जी उस झूठ को छिपाये रखने के लिये तो है सारा नाटक
सच्चाई को बहुत अच्छे से उकेरा है कविता में।
बहुत खूब ..अद्भुत कविता…प्रभावित करने वाली
अद्भुत… बहुत सुन्दर…
… आपकी तूलिका ने भी कमाल के रंग भरे है इस रचना में.
…. हमारे गाँव में एक रेलवे के मुलाजिम थे, श्री मार्टिन जॉन ‘अजनबी’. अब कहाँ है, पता नहीं. आपकी इस रचना ने उनकी याद दिला दी. वो एक वाल मैगजीन निकलते थे, हस्त रचित. जिसमे उनकी और आस पास के कई उभरते हुए रचनाकारों की रचनायें होती थी. जो हर सोमवार को रेलवे स्टेशन की दिवार पर चिपकती थी.
… आपकी इस रचना/लेआउट कुछ कुछ वैसी ही है.
रवि जी बहुत बहुत बधाई इस कविता को पढवाने के लिये. प्रस्तुतीकरण भी लाजवाब है. क्या आप कुछ वर्ष पहले विकल्प के अधिवेशन में मथुरा आये थे?
रचना-चयन की आपकी दृष्टि, चित्र. प्रस्तुतीकरण सभी कमाल का है, बधाई-ओमप्रकाश कश्यप
एक करार चांटा विश्व गुरुओं पर
bahut badiya
bahut sundar
badhai
बाप रे बाप! आग उगलती कविता। लेकिन मैं दलित विमर्श और स्त्री-विमर्श जैसे शब्दों से नफ़रत करने वाला ठहरा। खामोश रहने वालों को का हाल अगर बुरा हो, तो कुछ या अधिक दोषी वह खामोश आदमी भी होता है।